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________________ तीर्थ माहात्म्य का अर्थवाद १३०९ स्थलों की इतनी बड़ी संख्या है कि उन्हें सैकड़ों वर्षों में भी नहीं गिना जा सकता। वनपर्व ( ८३ । २०२ ) का कथन है कि पृथिवी पर नैमिष एवं अन्तरिक्ष में पुष्कर सर्वश्रेष्ठ तीर्थ हैं, कुरुक्षेत्र तीनों लोकों में विशिष्ट तीर्थ है और दस सहस्रकोटि तीर्थ पुष्कर में पाये जाते हैं (८२।२१ ) । अस्तु, समय-समय पर नये तीर्थ भी जोड़े गये तथा तीर्थों में स्थायी रूप से रहनेवाले, विशेषतः तीर्थ पुरोहितों (पण्डों) ने धन-लाभ से उत्तेजित होकर संदिग्ध प्रमाणों से युक्त बहुत से माहात्म्यों का निर्माण कर दिया और उन पर महाभारत एवं पुराणों के प्रसिद्ध रचयिता व्यास का नाम जोड़ दिया। तीर्थों पर लिखने वाले अधिकांश निबन्धकारों ने स्वरुचि अनुसार चुनाव की प्रक्रिया अपनायी है। प्रारम्भिक निबन्धकारों में लक्ष्मीवर (लगभग १११०-११२० ई०) ने अपने तीर्थकल्पतरु के आधे से अधिक भाग में वाराणसी एवं प्रयाग पर ही लिखा है और पुष्कर, पृथूदक, कोकामुख, बदरिकाश्रम, केदार जैसे प्रसिद्ध तीर्थों पर २ या ३ पृष्ठ ही लिखे हैं। नृसिंहप्रसाद ने अपने तीर्थसार में अधिकांश दक्षिण के तीर्थों पर ही लिखा है, यथा -- सेतुबन्ध, पुण्डरीक (आधुनिक पण्डरपुर), गोदावरी, कृष्णा-वेण्या, नर्मदा । नारायण भट्ट के त्रिस्थलीसेतु का दो-तिहाई भाग वाराणसी एवं इसके उप-तीर्थों के विषय में है और शेष प्रयाग एवं गया के विषय में । इस असमान विवेचन के कई कारण हैं; लेखकों के देश या उनके निवास स्थान, तीर्थस्थानों से उनका सुपरिचय और उनका पक्षपात एवं विशेष अनुराग । पुराणों, माहात्म्यों एवं निबन्धों के लेखकों में एक मनोवृत्ति यह भी रही है कि वे बहुत चढ़ा-बढ़ाकर अतिशयोक्तिपूर्ण विस्तार करते हैं । यदि कोई व्यक्ति किसी एक तीर्थ के ही विषय में पढ़े और उसके विषय में उल्लिखित प्रशस्तियों पर ध्यान न दे तो वह ऐसा अनुभव कर सकता है कि एक ही तीर्थ की यात्रा से इस जीवन एवं परलोक में उसकी सारी अभिलाषाएँ पूर्ण हो सकती हैं और काशी प्रयाग जैसे तीर्थों में जाने के उपरान्त उसे न तो यज्ञ करने चाहिए, और न दान आदि अन्य कर्म करने चाहिए। कुछ अनोखे उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं। वनपर्व ( ८२।२६-२७) में यहाँ तक आया है कि देव लोगों एवं ऋषि लोगों ने पुष्कर में सिद्धि प्राप्त की और जो भी कोई वहाँ स्नान करता है एवं श्रद्धापूर्वक देवों एवं अपने पितरों की पूजा करता है वह अश्वमेध करने का दसगुना फल पाता है । पद्मपुराण ( ५वाँ खण्ड, २७/७८) ने पुष्कर के विषय में लिखा है कि इससे बढ़कर संसार में कोई अन्य तीर्थं नहीं है। वनपर्व ( ८३ | १४५ ) पृथूदक की प्रशस्ति करते हुए कहा है कि कुरुक्षेत्र पुनीत है, सरस्वती कुरुक्षेत्र से अधिक पुनीत है और पृथूदक सभी तीर्थों में उच्च एवं पुनीत है। मत्स्य ० ( १८६ । ११ ) ने कतिपय तीर्थों की तुलनात्मक पुनीतता का उल्लेख यों किया है--' सरस्वती का जल तीन दिनों के स्नान से पवित्र करता है, यमुना का सात दिनों में, गंगा का जल तत्क्षण, किन्तु नर्मदा का जल केवल दर्शन से ही पवित्र करता है। ३२ वाराणसी की प्रशस्ति में कूर्म ० ( १।३१।६४ ) में आया है --- ' वाराणसी से बढ़कर कोई अन्य स्थल नहीं है और न कोई ऐसा होगा ही ।' अतिशयोक्ति करने की बद्धमूलता इतनी आगे बढ़ गयी कि लोगों ने कह दिया कि आमरण काशी में निवास कर लेने से न केवल व्यक्ति ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है, प्रत्युत वह जन्म-मरण के न समाप्त होनेवाले चक्र से भी बच जाता है और पुनः जन्म नहीं लेता । " यही बात लिंगपुराण ( १।९२।६३ एवं ९४ ) ने भी कही है। वामनपुराण में आया है--'चार प्रकार से मुक्ति प्राप्त ३२. त्रिभिः सारस्वतं तोयं सप्ताहेन तु यामुनम् । सद्यः पुनाति गांगेयं दर्शनादेव नार्मदम् ॥ पद्म० (आदिखण्ड १३।७ ) ; मत्स्य ० ( १८६ | ११ ) | अभिलषितार्थ चिन्तामणि (१।१।१३० ) में भी समान बात पायी जाती है - 'सरस्वती त्रिभिः स्नानैः पञ्चभिर्यमुनाघहृत् । जाह्नवी स्नानमात्रेण दर्शनेनैव नर्मदा ॥' ३३. आ बेहपतनाद्यावत्तत्क्षेत्रं यो न मुञ्चति । न केवलं ब्रह्महत्या प्राकृतं च निवर्तते ॥ प्राप्य विश्वेश्वरं देवं न स भूयोऽभिजायते । मत्स्य० (१८२।१६-१७ ) ; तीर्थकल्प ० ( पृ० १७ ने 'प्राकृतश्च' पाठान्तर दिया है, जिसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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