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________________ जलाशय, वन, कुल-पर्वत आदि पुण्यस्थल १३०५ पर्वतों की गोद से निकलते हुए कहा गया है । यहाँ पर्वत' शब्द साधारण अर्थ में आया है। अथर्ववेद (४।९।९) ने हिमालय की ककुद नामक चोटियों से निकले हुए अञ्जन का उल्लेख किया है-'वह अञ्जन, जो हिमालय की वैककुद नामक चोटियों से निकलता है,सभी मायाकारों एवं मायाविनियों (डाकिनियों) को नष्ट कर दे।' हिरण्यकेशि गा० (१०३।११५) ने भी इस अञ्जन की ओर संकेत किया है। गौतम, बौ० ध० सू० एवं वसिष्ठधर्मसूत्र में भी वही सूत्र आया है कि वे स्थान (देश) जो पुनीत हैं और पाप के नाशक हैं, वे हैं पर्वत, नदियाँ, पवित्र सरोवर, तीर्थ-स्थल, ऋषि-निवास, गोशाला एवं देवों के मंदिर।२ वायु० (७७.११७) एवं कूर्मपुराण (२१३७।४९-५०) का कथन है कि हिमालय के सभी भाग पुनीत हैं, गंगा सभी स्थानों में पुण्य (पवित्र) है, समुद्र में गिरनेवाली सभी नदियाँ पुण्य हैं और समुद्र सर्वाधिक पवित्र है। पद्म० (भूमिखण्ड ३९।४६-४७) का कथन है कि सभी नदियाँ, चाहे वे ग्रामों से या वनों से होकर जाती हैं, पुनीत हैं और जहाँ नदियों के तट का कोई तीर्थनाम न हो उसे विष्णुतीर्थ कहना चाहिए। कालिदास ने कुमारसम्भव (१११) २२. सर्वे शिलोच्चयाः सर्वाः सवन्त्यः पुण्या ह्रदास्तीर्थान्यषिनिवासा गोष्ठपरिस्कन्दा इति देशाः। गौ० (१९।१४), वसिष्ठ० (२२॥१२) एवं बौ० ५० स० (३।१०।१२, जिसमें 'ऋषिनिकेतनानि गोष्ठपरिष्कन्दा इति०' पाठान्तर आया है)। २३. सबं पुण्यं हिमवतो गंगा पुण्या च सर्वतः । समुद्रगाः समुद्राश्च सर्वे पुण्याः समन्ततः॥वायु० (७७।१।१७); सर्वत्र हिमवान् पुष्यो गंगा....न्ततः । नद्यः समुद्रगाः पुण्याः समुद्रश्च विशेषतः॥ कूर्म० (२।३७।४९५०)। 'राजा समस्ततीर्यानां सागरः सरितां पतिः।' नारदीय० (उत्तर ५८११९) । सर्वेप्रस्रवणाः पुण्याः सर्वे पुण्याः शिलोच्चयाः। नद्यः पुण्याः सदा सर्वा जाह्नवी तु विशेषतः ॥ शंख (८।१४ जिसमें 'सरांसि च शिलोच्चयाः' पाठ आया है); तीर्थप्रकाश (१.० १४)। सर्वाः समुद्रगाः पुण्याः सर्वे पुण्या नगोत्तमाः। सर्वमायतनं पुण्यं सर्वे पुण्या बनाश्रमाः॥ (तीर्थकल्प०, पु० २५०); पप० (४१९३-४६) में भी ये ही शब्द आये हैं, केवल 'वराश्रयाः' पाठ-भेद है। बड़े-बड़े पर्वत, जिन्हें कुलपर्वत कहा जाता है, सामान्यतः ये हैं--महेन्द्रो मलयः सद्यः शुक्तिमानक्षपर्वतः। विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तात्र कुलपर्वताः॥ कूर्म० (१।४७।२३।२४), वामन० (१३॥१४-१५); किन्तु वायु० (१९८५), मत्स्य० (११३।१०-१) एवं ब्रह्म (१८०१६) ने उन्हें भिन्न रूप से परिगणित किया है। बार्हस्पत्यसूत्र (३।८१) में आया है-'तत्रापि रैवतकविन्ध्यसह्यकुमारमलयश्रीपर्वतपारियात्राः सप्त कुलाचलाः।' नीलमतपुराण (५७) में ऐसा आया है-'महेन्द्रो ....ऋक्षवानपि । विन्ध्यश्च पारियात्रश्च न विनश्यन्ति पर्वताः॥' विष्णुधर्मोत्तर० (३।१७४) ने ९ पर्वतों के नाम लिये हैं--हिमवान्देमकटश्च निषधोनीलएव च । श्वेतश्च श्रृंगवान मेरुर्माल्यवानगन्धमादनः। नवंतान शैलनपतीनवम्यां पूजयेन्नरः॥' (पर्वताष्टमीवत)। ब्रह्माण्ड० (२।१६-३९) एवं वाय० (४५।१०८) ने समद्र में गिरनेवाली नदियों के विषय में यों लिखा है-'तास्तु नद्यः सरस्वत्यः सर्वा गंगाः समुद्रगाः। विश्वस्य मातरः सर्वा जगत्पापहराः स्मृताः॥' कुछ पुराणों में कुछ विशाल नदियां कुछ कालों में विशेष रूप से पवित्र कही गयी हैं, यथा-देवीपुराण (कल्प०, तीर्थ, पृ०२४२) में आया है-'कार्तिके ग्रहणं श्रेष्ठं गंगायमुनसंगमे । मार्गे तु ग्रहणं पुण्यं देविकायां महामुने॥पौषे तु नर्मदा पुण्या माघे सन्निहिता शुभा। फाल्गुने वरणा ख्याता चैत्रे पुण्या सरस्वती॥ वैशाखे तु महापुण्या चन्द्रभागा सरिद्वरा । ज्येष्ठे तु कौशिकी पुण्या आषाढे तापिका नदी॥श्रावणे सिन्धुनामा च भाद्रमासे च गण्डको। आश्विने सरयूश्चव भूयः पुण्या तु नर्मदा ॥ गोदावरी महापुण्या चन्द्रे राहुसमन्विते ॥' विष्णुधर्मसूत्र (८५) में आया है-'एवमादिष्वथान्येषु तोर्येषु सरिद्वरासु सर्वेष्वपि स्वभावेषु पुलिनेषु प्रस्रवणेषु पर्वतेषु निकुञ्जेषु वनेषूपवनेषु गोमयलिप्तेषु मनोजेषु।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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