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________________ १३०४ धर्मशास्त्र का इतिहास ब्राह्मण (के क्रमशः २५ । १०, २५/११ एवं २५।१२ अंश ) । विनशन एवं प्लक्ष - प्रास्रवण ( जो सरस्वती का उद्गमस्थल है) के बीच की भूमि सारस्वत सत्र के लिए सर्वोत्तम भूमि थी । सरस्वती एवं दृषद्वती के संगम (पश्चिम प्रयाग ) पर 'अपां नपात्' इष्टि का सम्पादन होता था, जिसमें पक्व चावल ( चरु) की आहुति दी जाती थी। सरस्वती के अन्तहित हो जानेवाले स्थल से लेकर प्लक्ष - प्रास्रवण की दूरी इतनी थी जिसे घोड़े पर बैठकर ४० दिनों में तय किया जाता था। जब सत्र के सम्पादन कर्ता प्लक्ष - प्रास्रवण तक पहुँचें तब उन्हें सत्र के कृत्यों का सम्पादन बन्द कर देना चाहिए और यमुना नदी में, जो कारपचव देश से होकर बहती है, अवभृथ स्नान करना चाहिए ( न कि सरस्वती में, चाहे उसमें जल हो तब भी नहीं ) । विस्तार के लिए देखिए कात्यायन श्रौतसूत्र ( १०।१५ - १९), जिसने कुरुक्षेत्र में 'परीण: ' नामक स्थल का उल्लेख किया है ( १०।१९।१), जहाँ वैदिक अग्नियाँ स्थापित होती थीं (अर्थात् जहाँ श्रौत यज्ञ किये जाते थे ) ; आश्व० श्री० सू० (१२२६ । १-२८), जिसने इतना जोड़ दिया है कि विनशन से फेंकी गयी एक शम्या की दूरी पर यजमानों द्वारा एक दिन बिताया जाता था; कात्यायनश्रौ० सू० (२४/५ - ६ ), जिसमें आया है कि दृषद्वती एवं सरस्वती के संगम पर अग्नि काम की इष्टि की जाती है; आप० श्री० सू० ( २३।१२-१३ ), जिसमें पहले के उल्लिखित तीन सूत्रों से अधिक विस्तृत विवेचन किया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण ( ८1१ ) में एक गाथा आयी है - " ऋषियों ने सरस्वती के तट पर एक सत्र किया, उनके बीच में बैठा हुआ कवष निकाल बाहर किया गया, क्योंकि वह ब्राह्मण नहीं था बल्कि दासीपुत्र था । उसे बाहर निकालकर मरुभूमि में इसलिए डाल दिया गया कि वह प्यास से तड़प-तड़पकर मर जाय । किन्तु उसने ॠ ० (१०/३० प्र देवत्रा ब्रह्मणे ) के सूक्त पाठ के रूप में जल या 'अपां नपात्' की स्तुति गायी (ऋ० के इस मन्त्र को 'अपोनप्त्रीय' कहा जाता है) जिससे सरस्वती वहाँ दौड़कर आ गयी जहाँ कवष खड़ा था और उस स्थान को घेर लिया। उस स्थान को उसके पश्चात् 'परिसरक' कहा गया । """ इससे प्रकट होता है। कि ऐतरेय ब्राह्मण के काल में तथा उसके बहुत पहले ही सरस्वती सूख गयी थी । देवल ने कई स्थानों को सारस्वत तीर्थों के नाम से पुकारा है। " में ऋ० (८|६|२८) में सम्भवतः कहा गया है कि पर्वतों की घाटियां एवं नदियों के संगम पवित्र हैं। प्राचीन लोगों ने पर्वतों को देव-निवास माना है। यूनान में डेल्फी के उत्तर के पर्नसिस को पवित्र पर्वतों में गिना जाता था और ओलिम्पस को देवों का घर माना जाता था। ऋग्वेद पर्वत को इन्द्र का संयुक्त देवता कहा गया है - 'हे इन्द्र एवं पर्वत, आप लोग हमें (हमारी बुद्धि को ) पवित्र कर दें (ऋ० १।१२२।३ ) ; 'हे इन्द्र एवं पर्वत, आप दोनों युद्ध में आगे होकर अपने वज्र से सेना लेकर आक्रमण करनेवालों को मार डालें' (ऋ० १।१३२।६) । ऋग्वेद ( ६।४९।१४ ) में एक स्तुति पृथक् रूप से पर्वत को भी सम्बोधित है- 'देवता अहिर्बुध्न्य, पर्वत एवं सविता हमारी स्तुतियों के कारण जलों के साथ भोजन दें।' ऋ० ( ३।३३।१) में विपाशा ( आधुनिक व्यास) एवं शुतुद्री को १९. यह ज्ञातव्य है कि वनपर्व (अध्याय ८३ ) ने कुरुक्षेत्र में अवस्थित सरस्वती के कतिपय तीर्थों का उल्लेख करते हुए सरक नामक प्रसिद्ध तीर्थ की चर्चा की है जो तीन करोड़ तीर्थों की पवित्रता को अपने में समाहित करता था (श्लोक ७५-७६) । यह सरक, लगता है, सरस्वती का परिसरक तीर्थ ही है । २०. प्लक्षत्रवणं वृद्धकन्याकं सारस्वतमादित्यतीर्थं कौबेरं वैजयन्तं पृथूदकं नैमिशं विनशनं वंशोद्भेदं प्रभासमिति सारस्वतानि । देवल ( तीर्थकल्पतरु, पृ० २५० ) । २१. उपह्वरे गिरीणां संगथे च नदीनाम् । घिया विप्रो अजायत ॥ ऋ० (८।६।२८) । वाज० सं० (२६।१५) ने 'संगमे' पढ़ा है। 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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