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________________ सरस्वती नदी एवं उसके प्राचीन तीर्थ १३०३ प्रचण्ड एवं गर्जनयुक्त सरस्वती की बाढ़ों और शक्तिशाली उत्ताल तरंगों से पहाड़ियों के शिखर तोड़ती हुई इस नदी का उल्लेख ऋ० (६।६१ । २ एवं ८) में हुआ है। " ऋ० (७/९६ । १ ) में सरस्वती को नदियों में अमुर्गा (दैवी उत्पत्ति वाली ) कहा गया है । दृषद्वती, आपया एवं सरस्वती के किनारे यज्ञों का सम्पादन भी हुआ था ( ऋ० ३।२३।४) । ऋ० (२।४१।१६) में सरस्वती को नदियों एवं देवियों में श्रेष्ठ कहा गया है ( अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति ) । ऋ० (१।३।११-१२) ने सरस्वती की प्रशंसा नदी एवं देवी के रूप में पावक ( पवित्र करनेवाली), मधुर एवं सत्यपूर्ण शब्दों को कहलानेवाली, सद्विचारों को जगानेवाली और अपनी बाढ़ों की ओर ध्यान जगानेवाली कहते हुए की है। " ऋ० (७/९५/२, ७१४९/२ एवं १।७१।७ ) से यह स्पष्ट है कि ऋग्वेदीय ऋषिगण को यह बात ज्ञात थी कि सात नदियाँ समुद्र में गिरती हैं। यह कहना उचित ही है कि सात नदियाँ निम्न थीं- सिन्धु, पंजाब की पाँच नदियाँ एवं सरस्वती । इन उक्तियों से यह प्रकट होता है कि उन दिनों ऋग्वेद के काल में सरस्वती एक विशाल - पूर्ण नदी थी, वह यमुना एवं शुतुद्रि ( १०/७५/५ ) के बीच से बहती थी और फिर ब्राह्मण-ग्रन्थों के काल में रेतीले स्थलों में अन्तहित हो गयी। बहुधा आज उसे सरसुती नाम से पुकारते हैं जो भटनेर के पास मरुभूमि में समा जाती है । वाज० सं० (३४।११) का कहना है कि पांच नदियां अपनी सहायक नदियों के साथ सरस्वती में मिलती हैं । " प्राचीन काल में सारस्वत नामक तीन सत्र होते थे, यथा-- ( १ ) मित्र एवं वरुण के सम्मान में, ( २ ) इन्द्र एवं मित्र के लिए तथा (३) अर्यमा के लिए । जहाँ सरस्वती पृथिवी में समा गयी उसके दक्षिणी सूखे तट पर दीक्षा ( किसी यज्ञ या कृत्य के लिए नियम ग्रहण) का सम्पादन होता था।" प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय सारस्वत सत्रों के लिए देखिए ताण्ड्य १५. इयं शुष्मेभिविखा इवारुजत्सानु गिरीणां तविषेभिरुमभिः । ऋ० ( ६ । ६१ । २ ) ; यस्या अनन्तो अह्रुतस्त्वेषश्चरिष्णुरर्णवः । अमश्चरति रोरुवत् ॥ ऋ० (६०६१।८) निरुक्त (२०२३) में आया है—' तत्र सरस्वती इत्येतस्य नवीवत् देवतावच्च निगमा भवन्ति', और इसने यह भी कहा है कि ऋ० (६।६११२ ) में सरस्वती नदी के रूप में वर्णित है। १६. चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् । यज्ञं दधे सरस्वती ॥ महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना । ऋ० (१।३।११-१२) । देखिए निरुक्त (११।२७) । १७. पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्त्रोतसः । सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेऽभवत्सरित् ॥ वाज० सं० ( ३४।११) । 1 १८. सरस्वत्या विनशने दीक्षन्ते । ..दृषद्वत्या अप्ययेऽपोनप्त्रीयं चरुं निरूप्याथातियन्ति । चतुश्चत्वारिशादीनानि सरस्वत्या विनशनात् प्लक्षः प्रात्रवणस्तावदितः स्वर्गो लोकः सरस्वतीसंमितेनाध्वना स्वर्गलोकं यन्ति ।... यदा प्लक्षं प्रात्रवणमागच्छन्त्ययोत्थानम् । कारपचवं प्रति यमुनामवभृथमभ्यवयन्ति । ताण्ड्य ० ( २५1१०1१, १५, १६, २१ एवं २३) । मनु (२।१७) ने ब्रह्मावर्त को सरस्वती एवं दृषद्वती के बीच की भूमि माना है और मध्यदेश ( २०२१) को हिमालय एवं विन्ध्य पर्वतों के बीच माना है, जो विनशन के पूर्व एवं प्रयाग के पश्चिम है। विनशन के लिए देखिए बौ० ध० सू०, वनपर्व एवं शल्यपर्व ( इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय १) । डा० डी० आर० पाटिल ने अपने ग्रन्थ 'कल्चरल हिस्ट्री आव वायुपुराण' ( पृ० ३३४ ) में कहा है कि तीर्थयात्रा की प्रथा का आरम्भ बौद्धों एवं जैनों द्वारा किया गया और यह आगे चलकर भारत के सभी धर्मों में प्रचलित हो गयी। किंतु यह सर्वथा भ्रामक बात है । ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों से स्पष्ट होता है कि भारत के अपेक्षाकृत छोटे भूमि-भाग में यमुना तक तीर्थस्थान ये जहाँ सारस्वत सत्रों का प्रचलन था । तीर्थस्थानों की महत्ता, उनकी यात्रा करना और वहाँ धार्मिक कृत्यों का सम्पादन ब्राह्मण-काल में विदित था जो बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के प्रचलन से कम-से-कम एक सहस्र वर्ष पहले की बात है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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