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________________ १३०२ धर्मशास्त्र का इतिहास स्वरूप संचित दोषों एवं पापों से छुटकारा देने के लिए भी उनका आह्वान किया गया है। तै ० सं० (२।६।८।३) ने उद्घोष किया है कि सभी देवता जलों में केन्द्रित हैं (आपो वै सर्वा देवताः)। अथर्ववेद (१।३३।१) में जलों को शुद्ध एवं पवित्र करनेवाले कहा गया है और सुख देने के लिए उनका आह्वान किया गया है। ऋग्वेद (५।५३।९, १०.६४१९ एवं १०।७५।५-६) में लगभग २० नदियों का आह्वान किया गया है।" ऋ० (१०।१०४१८) में इन्द्र को देवों एवं मनुष्यों के लिए ९९ बहती हुई नदियों को लानेवाला कहा गया है। ९९ नदियों के लिए देखिए ऋ० (१।३२।१४) । ऋ० (१०।६४।८) में सात की तिगुनी (अर्थात् २१) नदियों की चर्चा है और उसके आगे वाली ऋचा में सरस्वती, सरयू एवं सिन्धु नामक तीन नदियों को दैवी एवं माताओं के रूप में उल्लिखित किया गया है। सायण के मत से वे तीनों नदियां सात-सात के तीनों दलों में पृथक् रूप से (एक-एक दल के लिए) मुख्य हैं। ऋ० (११३२।१२, १॥३४१८, ११३५।८, २।१२।१२, ४।२८।१, ८।२४।२७ एवं १०।४३।३) में सात सिन्धओं का उल्लेख है। अथर्ववेद, (६।२।१) में भी ऐसा आया है--'अपां नपात् सिन्धवः सप्त पातन।' सरस्वती के लिए तीन स्तुतियां कही गयी हैं (ऋ० ६।६१ तथा ७।९५ एवं ९६) और अन्य ऋचाओं में भी इसका उल्लेख हुआ है। ऋ० (७।९२।२) में आया है कि केवल सरस्वती ही, जो पर्वतों से बहती हुई समुद्र की ओर जाती है, अन्य नदियों में ऐसी है जिसने नाहुष की प्रार्थना सुनी और उसे स्वीकार किया। सरस्वती के तटों पर एक राजा एवं कुछ लोग रहते थे (ऋ० ८।२१।१८)।" १२. हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः। या अग्नि गभं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शंस्योना भवन्तु ॥ अथर्व० (१॥३३॥१)। १३. इमं मे गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता पहष्ण्या। असिक्न्या मरुद्वधे वितस्तयाऽर्जीकीये शृणुह्या सुषोमया ॥ तुष्टा मया प्रथमं यातवे सतःसुसा रसया श्वेत्या त्या । त्वं सिन्धो कुभया गोमती कुमुं मेहत्त्वा सरथं याभिरीयसे॥ ऋ० (१०७५५-६)। १४. देखिए जर्नल आव दि डिपार्टमेण्ट आव लेटर्स, कलकत्ता यूनिवर्सिटी, जिल्द १५, पृ० १-६३, जहाँ यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि सरस्वती वास्तव में सिन्धु नदी ही है। किन्तु यह कथन अंगीकार नहीं किया जा सकता। सरस्वती, सरयू एवं सिन्धु का वर्णन ऋ०(१०।६४।९)में नदियों के तीन दलों की प्रमुख नदियो के रूप में हुआ है। प्रो० क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय ने विद्वानों के मत-मतान्तरों की ओर संकेत करते हुए स्वीकार किया है (पृ० २२) कि ऋग्वेद के १०वें मण्डल में सरस्वती को हम सिन्धु नहीं कह सकते एवं ऋ० (३।२३।४) में सरस्वती को सिन्धु नहीं कहा जा सकता, फिर निश्चयपूर्वक कहा है कि ६ठे एवं ७वें मण्डलों में सरस्वती सिन्धु ही है किन्तु १०३ मण्डल में नहीं। सारा का सारा तर्क कतिपय अप्रामाणिक धारणाओं के प्रयोग से दूषित कर दिया गया है। उन्होंने आधुनिक सरस्वती की स्थितियों को आरम्भिक वैदिक काल में भी ज्यों का त्यों माना है। इस कथन के विरोध में कि प्राचीन काल में सरस्वती उतनी ही विशाल एवं विशद थी जितनी कि आधुनिक सिन्धु है और भूचाल या ज्वालामुखी उपद्रवों के कारण वह अतीत काल में अपना स्वरूप खो बैठी, कौन से तर्क उपस्थित किये जा सकते हैं? आगे यह भी पूछा जा सकता है कि ६ठे एवं ७वें मण्डलों के प्रणयन में तथा ऋ० (३१२३१४) एवं ऋ० (१०७५।५) के प्रणयन में कितनी शताब्दियों का अन्तर उन्होंने व्यक्त किया है। यह कहने में कोई कठिनाई नहीं है कि ऋग्वेदीय काल में सिन्धु एवं सरस्वती नामक दो विशाल नदियां थीं। इस विषय में विस्तार के साथ यहाँ वर्णन उपस्थित करना कठिन है। पुराणों में सरस्वती को एक प्लक्ष वृक्ष से निकली हुई मा गया है, कुरुक्षेत्र से गुजरती हुई कहा गया है और सहस्रों पहाड़ियों को तोड़ती-फोड़ती द्वैत वन में प्रवेश करती हुई दर्शाया गया है। देखिए वामनपुराण (३२।१-४)--'सैषा शैलसहस्राणि विदार्य च महानदी। प्रविष्टा पुण्यतोयैषा वनं द्वैतमिति श्रुतम् ॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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