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________________ तीर्थ शब्द की व्याख्या १३०१ पर स्नान करना चाहिए। तै० सं० (४।५।११।१-२ ) एवं वाज० सं० ( १६।१६) में रुद्रों को तीर्थों में विचरण करते हुए लिखा गया है । शांखायन ब्राह्मण में आया है कि रात एवं दिन समुद्र हैं जो सबको समाहित कर लेते हैं और संध्याएँ (समुद्र के अगाध तीर्थ हैं।' तीर्थ उस मार्ग को भी कहते हैं जो यज्ञिय स्थल (विहार) से आने-जाने के लिए 'उत्कर' एवं 'चात्वाल' (गड्ढा) के बीच पड़ता है। और देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २ अध्याय २९ । ऐसा कहा गया है कि जिस प्रकार मानवशरीर के कुछ अंग, यथा दाहिना हाथ या कर्ण, अन्य अंगों से अपेक्षाकृत पवित्र माने जाते हैं, उसी प्रकार पृथिवी के कुछ स्थल पवित्र माने जाते हैं। तीर्थ तीन कारणों से पवित्र माने जाते हैं, यथा--स्थल की कुछ आश्चर्यजनक प्राकृतिक विशेषताओं के कारण, या किसी जलीय स्थल की अनोखी रमणीयता के कारण, या किसी तपःपूत ऋषि या मुनि के वहां (स्नान करने, तपःसाधना करने आदि के लिए ) रहने कारण | अतः तीर्थ का अर्थ है वह स्थान या स्थल या जलयुक्त स्थान (नदी, प्रपात, जलाशय आदि) जो अपने विलक्षण स्वरूप के कारण पुण्यार्जन की भावना को जाग्रत करे। इसके लिए किसी आकस्मिक परिस्थिति ( यथा सन्निकट में शालग्राम आदि) का होना आवश्यक नहीं है।' ऐसा भी कहा जा सकता है कि वे स्थल जिन्हें बुध लोगों एवं मुनियों तीर्थों की संज्ञा दी, तीर्थ हैं, जैसा कि अपने व्याकरण में पाणिनि ने 'नदी' एवं 'वृद्धि' जैसे पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है। स्कन्द० ( १।२।१३।१०) ने कहा है कि जहाँ प्राचीन काल के सत् पुरुष पुण्यार्जन के लिए रहते थे, वे स्थल तीर्थ हैं । मुख्य बात महान् पुरुषों के समीप जाना है, तीर्थयात्रा करना तो गौण है । ' ऋग्वेद में जलों, सामान्य रूप से सभी नदियों तथा कुछ विख्यात नदियों की ओर श्रद्धा के साथ संकेत किया गया है और उन्हें दैविक शक्ति-पूर्ण होने से पूजार्ह माना गया है।" ऋग्वेद ( ७१४९ ) के चार मन्त्रों में ऐसा आया है - 'ता आपो देवीरिह मामवन्तु', अर्थात् 'दैवी जल हमारी रक्षा करें ।' ऋ० (७१४९ । १ ) में जलों को 'पुनाना:' ( पवित्र करने वाले) कहा गया है । ऋ० (७/४७, १०।९ एवं १०1३० ) में कुछ ऐसी स्तुतियाँ हैं जो देवतास्वरूप जलों को सम्बोधित हैं ।" वे मानव को न केवल शरीर रूप से पवित्र करने वाले कहे गये हैं, प्रत्युत सम्यक् मार्ग से हटने के फल ५. अप्सु स्नाति साक्षादेव दीक्षातपसी अवरुन्धे तीर्थे स्नाति । तै० सं० (६|१|१|१-२ ) । इस उक्ति के विवेचन के लिए देखिए जैमिनि० ( ३।४।१४ - १६) । ६. समुद्रो वा एष सवंहरो यदहोरात्रे तस्य हैते अगाधे तीर्थे यत्सन्ध्ये तद्यथा अगाधाम्यां तीर्थाम्यां समुद्रमतीयात्तावृक् तत् । शां० ब्रा० (२२९) । ७. ते अन्तरेण चात्वालोत्करा उपनिष्क्रामन्ति तद्धि यज्ञस्य तीर्थमाप्नानं नाम । शां० ब्रा० ( १८/९ ) । ८. यथा शरीरस्योद्देशाः केचिन्मेध्यतमाः स्मृताः । तथा पृथिव्या उद्देशाः केचित् पुण्यतमाः स्मृताः ॥ प्रभावावद्भुताद् भूमेः सलिलस्य च तेजसा। परिग्रहान्मुनीनां च तीर्थानां पुण्यता स्मृता ॥ पद्म० ( उत्तरखण्ड, २३७२५-२७); स्कन्द० (काशीखण्ड, ६।४३-४४ ) ; नारदीयपुराण (२।६२।४६-४७) । ये श्लोक कल्पतर (तीर्थ, पृ० ७-८) द्वारा महाभारत के कहे गये हैं; इन्हें तीर्थप्रकाश ( पृ०१०) ने भी उद्धृत किया है। और देखिए अनुशासनपर्व (१०८।१६-१८) । ९. मुख्या पुरुषयात्रा हि तीर्थयात्रानुषं गतः । सद्भिः समाश्रितो भूप भूमिभागस्तथोच्यते ॥ स्कन्द० ( १२ १३।१०) : यद्धि पूर्वतमैः सद्भिः सेवितं धर्मसिद्धये । तद्धि पुण्यतमं लोके सन्तस्तीर्थं प्रचक्षते ॥ स्कन्द० ( पृथ्वीच०, पाण्डुलिपि १३५) । १०. ऋग्वेद में उल्लिखित नदियों के लिए देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय १ । ११. इवमापः प्रवहत यत्किं च दुरितं मयि । यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेर्पा उतानृतम् ॥ ऋ० (१०।९।८ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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