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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास में हिमालय को देवतात्मा (देवों के निवास से सजीव) कहा है। भागवत (५।१९-१६) ने पुनीत पर्वतों के २७ एवं ब्रह्माण्ड (२।१६।२०-२३) ने ३० नाम दिये हैं। हिमाच्छादित पर्वतों, प्राणदायिनी विशाल नदियों एवं बड़े वनों की सौन्दर्यशोभा एवं गरिमा सभी लोगों के मन को मग्ध कर लेती है और यह सोचने को प्रेरित करती है कि उनमें कोई दैवी सता है और ऐसे परिवेश में परम ब्रह्मा आंशिक रूप में अभिव्यंजित रहता है। आधनिक काल में प्रोटेस्टेंट यरोप एवं अमेरिका में कदाचित ही कोई व्यक्ति तीर्थयात्रा करता हो। हाँ, इसके स्थान पर वहाँ के लोग विश्राम करने, स्वास्थ्य-लाभ के लिए, प्राकृतिक शोभा के दर्शनार्थ एवं संकुल जीवन से हटकर खुले वातावरण में भ्रमणार्थ आते-जाते हैं। किन्तु आज भी तीर्थस्थान में रोग-निवारणार्थ जाना देखने में आता है। डा० अलेक्सिस कैरेल, जो एक प्रसिद्ध शल्य-चिकित्सक एतं नोबेल पुरस्कार-विजेता हैं, के ग्रन्थ 'ए जर्नी टु लौडेस' में फ्रांस में स्थित लौर्डस में प्रकट हा चमत्कारों के वर्णन से पश्चिम के लोगों में तीर्थयात्रा के विषय में एक नयी मनोवत्ति का प्रादुर्भाव हुआ है। इसी प्रकार गत दो महायद्धों में मारे गये अज्ञात शहीदों की समाधियों की तीर्थयात्रा भी इन दिनों आरम्भ हो गयी है। ऋ० (१०११४६६१) में विशाल वन (अरण्यानी) को देवता के रूप में सम्बोधित किया गया है। वामनपुराण (३४१३-५) ने कुरुक्षेत्र के सात वनों को पुण्यप्रद एवं पापहारी कहा है जो ये हैं--काम्यकवन, अदितिवन, व्यासवन, फलकीवन, सूर्यवन, मधुवन एवं पुण्यशीतवन ।। सूत्रों एवं मनुस्मृति तया याज्ञ जैसी प्राचीन स्मृतियों में तीर्थों का कोई महत्त्वपूर्ण स्थिति नहीं दर्शायी गयी है। किन्तु महाभारत एवं पुराणों में उनकी महिमा गायी गयी है और उन्हें यज्ञों से बढ़कर माना गया है। वनपर्व (८२।१३-१७) में देवयज्ञों एवं तीर्थयात्राओं की तुलना की गयी है; यज्ञों में बहुत-से पात्रों, यन्त्रों, संभार-संचयन, पुरोहितों का सहयोग, पत्नी की उपस्थिति आदि की आवश्यकता होती है, अत: उनका सम्पादन केवल राजकुमारों या धनिक लोगों द्वारा ही सम्भव है। निर्धनों द्वारा, विधुरों, असहायों, मित्रविहीनों द्वारा उनका सम्पादन सम्भव नहीं। तीर्थयात्रा द्वारा जो पुण्य प्राप्त होते हैं वे अग्निष्टोम जैसे यज्ञों द्वारा, जिनमें पुरोहितों को अधिक दक्षिणा देनी पड़ती है, प्राप्त नहीं हो सकते; अतः तीर्थयात्रा यज्ञों से उत्तम है। किन्तु वनपर्व (८२।९-१२) एवं अनुशासनपर्व (१०८।३-४) ने तीर्थयात्रा से पूर्ण पुण्य प्राप्त करने के लिए उच्च नैतिक एवं आध्यात्मिक गुणों पर बहुत बल दिया है। ऐसा कहा गया है--जिसके हाथ, पाँव, मन सुसंयत हैं, जिसे विद्या, तप एवं काति प्राप्त है वही तीर्थयात्रा से (पूर्ण) फल प्राप्त २४. शृणु सप्त वनानीह कुरुक्षेत्रस्य मध्यतः। येषां नामानि पुण्यानि सर्वपापहराणि च ॥ काम्यकं च वनं पुण्यम्। वामनपुराण (३४॥३-५)। २५. ऋषिभिः ऋतवः प्रोक्ता देवेष्विव यथाक्रमम् । फलं चैव यथातथ्यं प्रेत्य चेह च सर्वशः॥ न ते शक्या दरिद्रेण यज्ञाः प्राप्तुं महीपते । बहूपकरणा यज्ञा नानासम्भारविस्तराः॥प्राप्यन्ते पार्थिवरेतैः समृद्ध नरः क्वचित् । नार्यन्यून वगणरेकात्मभिरसाधनैः॥ यो दरिद्वैरपि विधिः शक्यः प्राप्तुं नरेश्वर । तुल्यो यज्ञफलैः पुण्यस्तं निबोध युधां वर॥ऋषीणां परमं गुह्यमिदं भरतसत्तम ।तीर्थाभिगमनं पुण्यं यज्ञैरपि विशिष्यते ॥महाभारत।(वनपर्व ८२॥१३-१७); तीर्थकल्पतरु (पृ० ३७); तीर्थप्र० (पृ० १२) ने व्याख्या की है--अवगणैः तक्षादिसहायरहितः, यज्ञस्य कुण्डमण्डपादिसाध्यत्वात्, एकात्मभिः पत्नीरहितैः, असंहतैः ऋत्विगादिसंघातरहितः। और देखिए अनुशासनपर्व (१०७।२-४), मत्स्यपुराण (११२।१२-१५), पद्मपुराण (आदिखंड, ११।१४-१७ एवं ४९।१२-१) एवं विष्णुधर्मोतरपुराण (३३२७३।४-५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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