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धर्मशास्त्र का इतिहास से, जिसमें पुत्र या किसी अन्य सम्बन्धी द्वारा छोड़ा गया सांड पानी पीता है, पितरों को तृप्ति मिलती है। जब भी कभी छोड़ा गया सांड मस्ती में आकर अपने खुरों से मिट्टी झाड़ता है वह मिट्टी पर्याप्त भोजन के रूप में एवं सांड द्वारा ग्रहण किया गया जल पितरों के पास पहुंचता है।५ अनुशासनपर्व (१२५।७३-७४) में आया है कि वृषभ छोड़ने (नीले रंग के वृषभ के उत्सर्ग) से, तिल-जल के अर्पण से एवं (वर्षा ऋतु में) दीप जलाने से व्यक्ति पितृ-ऋण से मुक्त हो जाता है।
गरुडपुराण (२।५।४० एवं ४४-४५) में ऐसा आया है कि जिस मृत व्यक्ति के लिए ११वें दिन वृषोत्सर्ग नहीं होता वह सदा के लिए प्रेतावस्था में रहता है, भले ही उसके लिए सैकड़ों श्राद्ध किये जायें। इस पुराण ने यह भी कहा है कि यदि ११वें दिन वृषभ न प्राप्त हो सके तो दर्भ, आटे या मिट्टी के बैल को प्रतीकात्मक रूप में छोड़ना चाहिए। भविष्य (निर्णयसिन्धु ३, पृ० ५०५) ने मृत्यु के १२वें दिन सांड़ छोड़ने की व्यवस्था दी है। निर्णयसिन्धु ने कहा है कि दर्भ, पिष्ट एवं मिट्टी से बनी वृषभाकृति के विषय में कोई प्रमाण नहीं है। आजकल भी साँड़ छोड़े जाते हैं, किन्तु उनका मूल्य बढ़ जाने से परम्परा में कमी पड़ती जा रही है। कतिपय मध्यकाल के निबन्धों, यया-पितृदयिता (पृ० ८४-९४) रुद्रधरकृत श्राद्धविवेक (पृ० ६९-७७), निर्णयसिन्धु (३, पृ० ५९५-५९६), शुद्धिप्रकाश (पृ० २२५२३०), नारायण भट्ट-कृत अन्त्येष्टिपद्धति आदि ने विशद वर्णन उपस्थित किया है, जिसे हम स्थानाभाव से यहाँ नहीं दे रहे हैं। निबन्धों में ऐसा आया है कि दागे हुए साँड़ (उत्सर्ग किये गये बैल) को बैलगाड़ी में नहीं जोतना चाहिए और न उसे पकड़ना चाहिए तथा उसके साथ छोड़ी गयी गायों को भी न तो दुहना चाहिए और न गोशाला में रखना चाहिए। मृत स्त्री के लिए वृषोत्सर्ग नहीं होना चाहिए, प्रत्युत बिना अंकित किये बछड़े-सहित एक गाय को माला आदि से अलंकृत कर दान दे देना चाहिए।
वृषोत्सर्ग क्यों होता है ? कल्पना का सहारा लिया जाय तो यह कहा जा सकता है कि यदि कोई बैल श्रम से (जो कि सभी बैलों को करना पड़ता है) मुक्त किया जाता है तो मृत व्यक्ति के सम्बन्धी ऐसा करके मृत को परलोक में आनन्दित करते हैं। बेचारे बैल को श्रम से छुटकारा मिलता है और वह उन्मुक्त हो सुशान्त वातावरण में विचरण करता है, इस प्रकार उसकी इस मुक्ति से मृत व्यक्ति को परलोक में शान्ति मिलती है !
श्राद्धों के विषय में चर्चा करते हुए एक अन्य श्राद्ध का उल्लेख करना आवश्यक है और वह है जीवभाव या जीवच्छा जिसके विषय में बौ० गृहशेषसूत्र (३।१९),लिंगपुराण (२।४५।८-९० श्रा०प्र०, पृ० ३६३-३६४),कल्पतरु (श्रा०, पृ० २७७-२७९), हेमाद्रि (श्रा०, पृ० १७०४-१७१७), श्रा०प्र० (पृ० ३६१-३७१) आदि में वर्णन आया है। यह श्राद्ध व्यक्ति अपनी जीवितावस्था में अपने आत्मा के कल्याण के लिए करता है। इस विषय में बौधायन का उल्लेख सबसे प्राचीन है और हम उसे संक्षेप में दे रहे हैं-"वह जो अपने लिए सर्वोच्च आनन्द चाहता है, कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को उपवास करता है, और उसी दिन मृत व्यक्तियों की अन्त्येष्टि-क्रियाओं में प्रयुक्त होनेवाले सम्भारों (सामग्रियों) को एकत्र करता है, यथा छ: वस्त्र, सोने की एक सुई, एक अंकुश, रुई के सूत्र से बना एक लच्छा
२५. नील वृष का अर्थ कई ढंग से लगाया गया है। मत्स्प० (२०७।३८) एवं विष्णुधर्मोत्तर० (१३१४६।५६) में आया है-'चरणानि मुखं पुच्छं यस्य श्वेतानि गोपतेः । लाक्षारससवर्णश्च तं नीलमिति निविशेत् ॥' इन प्रन्यों में साड़ के शुभ एवं अशुभ लक्षणों का वर्णन दिया हुआ है। भा०क० ल० (१०२१४) ने शौनक को उद्धृत किया है-'लोहितो . यस्तु पर्नेन मुले पुच्छे च पाण्डर। श्वेतः खरविषाणाम्यां स नीलो वृष उच्यते ॥ भा० प्र० एवं शु० प्र० (पृ० २२६) ने इसे ब्रह्माण्ड० (रेवाखण्ड) का माना है।
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