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________________ जीवच्छ्रा (जीवित अवस्था में अपना श्राद्ध करना) १२९३ (पाश), एक फटा-पुराना वस्त्र, पत्तों से युक्त पलाश की एक टहनी, उदुम्बर की एक कुर्सी, घड़े एवं अन्य सामग्रियाँ दूसरे दिन वह स्नान करता है। जल के मध्य में खड़ा रहने के उपरान्त वह बाहर आकर ब्राह्मणों से निम्न बात कहलाता है - 'यह शुभ दिन है, (तुम्हारे लिए) सुख एवं समृद्धि बढ़े।' वह वस्त्रों, एक मुद्रिका एवं दक्षिणा का दान करता है और दक्षिणाभिमुख हो घृतमिश्रित खीर ( दूध में पकाया हुआ चावल) खाता है । वह होम की पद्धति से अग्नि प्रज्वलित करता है, उसके चतुर्दिक् दर्भ बिछाता है, उस पर भोजन पकाकर उसकी चार आहुतियाँ अग्नि में डालता है; प्रथम आहुति प्रथम पुरोनुवाक्या ( आमन्त्रित करने वाली प्रार्थना) ' चत्वारि श्रृंगा' (ऋ० ४|५८ ३ ० आ० १०।१०।२) के पाठ के उपरान्त दी जाती है; वह इसको याज्या ( अर्पण के समय की प्रार्थना) 'त्रिधा हितम् ' ( ऋ० ४१५८/४ ) कहकर देता है। " भात की दूसरी आहुति की 'पुरोनुवाक्या' एवं 'याज्या' हैं 'तत्सवितुर्वरेण्यम्' (ऋ०३।६२।१०, तै० सं० १२५ | ६|४) एवं ' योजयित्री सूनृतानाम् ।' तीसरी आहुति की हैं क्रम से 'ये चत्वारः' ( तै० सं० ५/७/२/३ ) एवं 'द्वे श्रुती' (ऋ० १० ८८ १५ एवं तै० ब्रा० १/४/२।३१ ; और चौथी की हैं क्रम से 'अग्ने नय' (ऋ० १।१८९ । १ एवं तै० सं० १।११४ | ३ ) एवं 'या तिरश्ची' (बृ० उ० ६।३।१ ) । उसके उपरान्त कर्ता पुरुषसूक्त के १८ मन्त्रों (वाज० सं० ३१११-१८; ते ० आ० ३।१२ ) के साथ घृताहुतियाँ देता है और गायत्री मन्त्र के साथ १००८ या १०८ या २८ घृताहुतियाँ देता है । तब वह किसी चौराहे पर जाकर सुई, अंकुश, फटे परिधान एवं फंदे वाली डोरी किसी कम ऊंचाई वाले ब्राह्मण को देता है, उससे 'यम के दूत प्रसन्न हों' कहलाता है और घड़ों को चावलों पर रखता है। जलपूर्ण घड़ों के चारों ओर सूत बाँधने के उपरान्त वह मानव की आकृति बनाता है, यथा ३ सूतों से सिर, ३ से मुख, २१ से गरदन, ४ से धड़, दो-दो से प्रत्येक बाहु, एक से जननेन्द्रिय, ५-५ से प्रत्येक पैर, और ऐसा करते हुए वह 'श्रद्धास्पद यम प्रसन्न हो' ऐसा कहता है। इसके उपरान्त कुर्सी को पंचगव्य से धोते हुए एक मानव आकृति कृष्ण मृगचर्म पर पलाश- दलों (टहनियों) से बनाता है, तब वह घड़े पर बनी आकृति में प्राणों की प्रतिष्ठा करता है तथा अपने शरीर को टहनियों से बने शरीर पर रखकर सो जाता है। जब वह उठता है तो स्वयं अपने शरीर को घड़ों के जल से नहलाता है और पुरुषसूक्त का पाठ करता है, पुनः पंचगव्य से स्नान कर स्वच्छ जल से अपने को धोता है। इसके उपरान्त सायंकाल तिल एवं घृतमिश्रित भोजन करता है। यम के दूतों को प्रसन्न करने के लिए वह ब्रह्मभोज देता है। चौथे दिन वह मन्त्रों के साथ आकृति को जलाता है । इसके उपरान्त वह 'अमुक नाम एवं गोत्र वाले मुझे परलोक में कल्याण के लिए पिण्ड; स्वधा नमः' ऐसा कहकर जल एवं पिण्ड देता है। इस प्रकार उस श्राद्ध कृत्य का अन्त होता है। उसे अपने लिए दस दिनों तक आशौच करना पड़ता है, किन्तु अन्य सम्बन्धी लोग ऐसा नहीं करते । ११ वें दिन वह एकोद्दिष्ट करता है। इस विषय में लोग निम्नलिखित श्लोक उद्धृत करते हैं-- 'जो कष्ट में है उसे तथा स्त्री एवं शूद्र को मन्त्रों से अपने शरीर की आकृति जलाकर उसी दिन सारे कृत्य करने चाहिए । यही श्रुति-आज्ञा है ।' स्त्रियों के लिए कृत्य मौन रूप से या वैदिक मन्त्रों के साथ ( ? ) किये जाने चाहिए। इसी प्रकार एक वर्ष तक प्रति मास उसे अपना श्राद्ध करना चाहिए और १२ वर्षों तक प्रत्येक वर्ष के अन्त में करना चाहिए । २६. 'पुरोनुवाक्या' (या केवल 'अनुवाक्या' ) इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह यज्ञ के पूर्व देवता को अनुकूल बनाने के लिए पढ़ी जाती है ( पुरः पूर्व यागाद्देवतामनुकूलयितुं या ऋगुच्यते इति व्युत्पत्या ) । इसी प्रकार 'याज्या' अर्पण की स्तुति है। इसके पूर्व 'ये यजामहे' कहा जाता है और इसके पश्चात् 'वषट्' (उच्चारण ऐसा है— व ३ षट्) । दोनों का पाठ होता द्वारा उच्च स्वर से होता है। 'याज्या' का पाठ खड़े होकर किया जाता है किन्तु 'पुरोनुवाक्या' का बैठकर । 'योजयित्री सूनुतानाम्' 'चोदयित्री सुनुतानाम्' (ऋ० १।३।११) का पाठान्तर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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