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________________ १२८२ धर्मशास्त्र का इतिहास लिए होते हैं। दो दैव ब्राह्मण तथा एक प्रेत के लिए और तीन उसके तीन पितरों का प्रतिनिधित्व करने के लिए निमत्रित होते हैं. यदि व्यक्ति अधिक ब्राह्मणों को बलाने में असमर्थ हो तो उसे तीन ब्राह्मणों को बलाना चाहिए, जिनमें एक विश्वेदेवों, एक प्रेत एवं एक तीन पितरों के लिए होता है। उसे प्रार्थना करनी चाहिए---'मैं तीन पितरों के पात्रों के साथ प्रेत (मत व्यक्ति) का पात्र मिलाऊंगा।''अवश्य मिलाओ' की अनमति पाकर वह प्रेत एवं पितरों के पात्रों में कश छोडता है और प्रेत के पात्र में थोड़ा जल छोड़कर शेष पितरों के पात्रों में दो मन्त्रों के साथ डाल देता है ('ये समानाः', वाज०सं० १९।४५-४६) । प्रेत-पात्र के जल से प्रेत को और पितृपात्रों से तीन पितरों को अर्घ्य दिया जाता है। चार पिण्ड बनाये जाते हैं, एक प्रेत के लिए और तीन पितरों के लिए, और तब कर्ता प्रार्थना करता है-'मैं प्रेत-पिण्ड को • उसके तीन पितरों के पिण्डों से मिलाऊँगा',जब 'अवश्य मिलाओ' की अनुमति मिल जाती है तो वह प्रेत-पिण्ड के तीन भाग करके एक-एक भाग को पितृ-पिण्डों में अलग-अलग मिला देता है और उपर्युक्त (वाज० सं० १९।४५-४६) मन्त्रों का पाठ करता है। यहाँ पर गरुडपुराण (१।२२०१६) ने एक मतभेद उपस्थित कर कहा है कि प्रेत-पिण्ड को दो भागों में विभाजित कर केवल पितामह एवं प्रपितामह के पिण्डों के भीतर एक-एक करके डाल देना चाहिए। सपिण्डीकरण में एकोद्दिष्ट एवं पार्वण के स्वरूप मिले हुए हैं; एक तोप्रेत वाला स्वरूप और दूसरा प्रेत के तीन पितरों वाला, अतः इसमें दोनों प्रकार के श्राद्ध सम्मिलित हैं। जब सपिण्डीकरण का अन्त ब्राह्मणों के दक्षिणा-दान से होता है तो प्रेत प्रेतत्व छोड़कर पितर हो जाता है। प्रेत की दशा या स्थिति में भूख एवं प्यास की भयानक यातनाएँ होती हैं, किन्तु पितर हो जाने पर वसु, रुद्र, आदित्य नामक श्राद्ध-देवताओं के संसर्ग में आ जाना होता है। प्रेत शब्द के दो अर्थ हैं; (१) वह जो मृत है एवं (२) वह जो मृत है किन्तु अभी उसका सपिण्डीकरण नहीं हुआ है। सपिण्डीकरण या सपिण्डन का परिणाम यह है कि मृत का प्रपितामह, जिसका सपिण्डीकरण हो चुका रहता है, पिण्ड के अधिकारी पितरों की पंक्ति से हट जाता है और केवल 'लेपभाक्' (अर्थात् केवल हाथ में लगे भोजन के 'झाड़न' का अधिकारी) रह जाता है, फलतः प्रेत पितरों की श्रेणी में आ जाता है और उसके पश्चात् किये जानेवाले पार्वण श्राद्ध के पिण्डों का वह अधिकारी हो जाता है। गरुडपुराण (१।२२०१२) में आया है कि पार्वण की भाँति ही अपराह्न में सपिण्डीकरण श्राद्ध का सम्पादन होता है। यह ज्ञातव्य है कि कुछ ग्रन्थों में प्रेतपात्र से पितृपात्रों में जल छोड़ने के समय के मन्त्रों में भेद पाया जाता है। विष्णुधर्मसूत्र (२१।१४) में मन्त्र ये हैं--'संसृजतु त्वा पृथिवी' (पृथिवी तुम्हें संयुक्त करे या मिलाये) एवं 'समानी व आकूतिः' (ऋ० १०।१९१।४) । आश्व० गृह्यपरिशिष्ट (३।११) ने ऋ० (१।९०।६-८) के तीन मधुमती मन्त्र और ऋग्वेद के अन्तिम तीन सुन्दर मन्त्र (१०।१९११२-४) दिये हैं। ___ याज्ञ० (१।२५४) एवं मार्कण्डेय ० (२८।१७-१८) ने व्यवस्था दी है कि एकोद्दिष्ट एवं सपिण्डीकरण स्त्रियों के लिए भी होने चाहिए (किन्तु पार्वण एवं आभ्युदयिक नहीं)। माता के सपिण्डीकरण के विषय में कई मत हैं। जब स्त्री पुत्रहीन रूप में मर जाय और उसका पति जीवित हो तो उसका सपिण्डीकरण उसकी सास के साथ होता है (गोभिल स्मृति ३।१०२)। यदि पुत्र एवं पति से हीन कोई स्त्री मर जाय तो उसके लिए सपिण्डन नहीं होना चाहिए। यदि कोई स्त्री अपने पति की चिता पर जल जाय या बाद को (सती होकर) मर जाय तो उसके पुत्र को अपने पिता के साथ उसका सपिण्डन करना चाहिए, उसके लिए अलग से सपिण्डन नहीं होता। यदि उसका आसुर विवाह हआ हो ९. प्रेतपिण्डं त्रिधा विभज्य पितृपिण्डेषु त्रिष्वादधाति मधु वाता इति तिसृभिः संगच्छध्वमिति द्वाभ्यामनुमन्त्र्य शेषं पार्वणवत्कुर्यात् । आश्व० गृ० परि० (३।११)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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