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माता, विमाता आदि के सपिण्डन, आत्मघातियों की नारायण-बलि आदि का निर्णय
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या वह पुत्रिका बना ली गयी हो तो पुत्र को अपनी माता का सपिण्डन अपनी नानी के साथ करना चाहिए, किन्तु यदि विवाह ब्राह्म या अन्य तीन उचित विवाह-विधियों से हुआ होतो पुत्र को अपनी माता का सपिण्डन अपने पिता या पितामही या नाना के साथ करना चाहिए। इन तीन विकल्पों में यदि कोई कुलाचार हो तो उसका अनुसरण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है। यदि किसी स्त्री का विमाता-पुत्र (सौत का पुत्र) हो तो उसको उसका सपिण्डीकरण अपने पिता के साथ करना चाहिए, जैसा कि मनु (९।१८३ वसिष्ठ १७११) ने संकेत किया है। इन बातों के विवेचन के लिए एवं अन्य विकल्पों के लिए देखिए मिताक्षरा (याज्ञ० १।२५३-२५४) एवं स्मृतिच० (आशौच, पृ० १६९)
निर्णयसिन्धु (३,१० ३८८) के मत से उपनयन-विहीन मृत व्यक्ति का सपिण्डन नहीं होना चाहिए, किन्तु यदि वह पांच वर्ष से अधिक का रहा हो तो षोडश श्राद्धों का सम्पादन होना चाहिए (सपिण्डन नहीं) और पिण्ड का अर्पण खाली भूमि पर होना चाहिए। यह ज्ञातव्य है कि जब तक कुल के मृत व्यक्ति का सपिण्डन न हो जाय तब तक कोई शुभ कार्य, यथा विवाह (जिसमें आभ्युदयिक श्राद्ध का सम्पादन आवश्यक है) आदि कृत्य, नहीं किये जाने चाहिए (किन्तु सीमन्तोन्नयन जैसे संस्कार अवश्य कर दिये जाने चाहिए)।
मन (५।८९-९०) में आया है कि कुछ लोगों के लिए जल-तर्पण एवं सपिण्डीकरण जैसे कृत्य नहीं किये जाने चाहिए, यथा--नास्तिक, वर्णसंकर, संन्यासी, आत्मघाती, नास्तिक सिद्धान्तों को मानने वाला, व्यभिचारिणी, भ्रूण
एवं पति की हत्याकारिणी एवं सुरापी नारी। याज्ञ० (३॥६) में भी ऐसी ही व्यवस्थाएँ दी हुई हैं। यह ज्ञातव्य है कि - स्मृतियों ने आत्महत्या के सभी प्रकारों की भर्त्सना नहीं की है। देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय ३४। इनके
अतिरिक्त यम (मिता०, याज्ञ० ३।६) ने व्यवस्था दी है कि मनु एवं याज्ञ० में उल्लिखित व्यक्तियों के लिए आशौच, जल-तर्पण, रुदन, शवदाह एवं अन्त्येष्टि-क्रियाएँ नहीं करनी चाहिए। मिता० (याज्ञ० ३।६) ने वृद्ध-याज्ञवल्क्य एवं छागलेय को उद्धृत करते हुए लिखा है कि आत्महत्या के घृणित प्रकारों में एक वर्ष के उपरान्त नारायणबलि करके श्राद्ध करने चाहिए। इसके उपरान्त मिता० ने नारायणबलि पर सविस्तर लिखा है (देखिए इस खण्ड का अध्याय ९ एवं स्कन्दपुराण, नागरखण्ड, २१९।१९-२१)। स्कन्द० में मत प्रकाशित हुआ है कि आत्मघातियों एवं लड़ाई-झगड़े में मृत लोगों के लिए कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को श्राद्ध करना चाहिए।
__ अब हम आभ्युदयिक श्राद्ध का वर्णन करेंगे। आश्व० गृ० (४७) ने केवल पार्वण, काम्य, आभ्युदयिक एवं एकोद्दिष्ट नामक चार श्राद्धों का उल्लेख किया है। आश्व० गृ० (२।५।१३-१५), शांखा० गृ० (४१४), गोभिलगृ० (४।३।३५-३७), कौषीतकि गृ० (४१४), बो० गृ० (३।१२।२-५) एवं कात्या० श्राद्धसूत्र (कण्डिका ६) ने संक्षेप में इस श्राद्ध का वर्णन किया है। अधिकांश सूत्रों के मत से यह श्राद्ध पुत्र-जन्म, चौल कर्म, उपनयन, विवाह जैसे मांगलिक अवसरों पर या किसी पूर्त (कूप, जलाशय, वाटिका आदि जन-कल्याणार्थ निर्माण सम्बन्धी दान-कर्म) के आरम्भ में किया जाता है। आश्व० गृ० एवं गोभिलगृ० अति संक्षेप में इसकी विधि बतलाते हैं कि मांगलिक अवसरों पर
१०. स्वेन भ; समं श्राद्धं माता भुक्ते सुधामयम् । पितामही च स्वेनैव स्वेनैव प्रपितामही॥बृहस्पति (स्मृतिच०, श्रा०, पृ० ४४९; कल्पतरु, श्रा०, ५० २३९ एवं श्रा० कि० को०, पृ० ४२८) । पितुः पितामहे यद्वत् पूर्ण संवत्सरे सुतः। मातुर्मातामहे तद्वदेषा कार्या सपिण्डता ॥ उशना (मिता०, याज्ञ० ११२५३-२५४)। मातुः सपिण्डीकरणं पितामह्या सहोदितम् (गोभिलस्मृति २।१०२; श्रा० कि० कौ०, पृ० ४२८)। गरुड़० (प्रत० ३४।१२१) में आया है-'पितामहा समं मातुः पितुः सह पितामहैः । सपिण्डीकरणं कार्यमिति ताय मतं मम ॥'
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