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सपिण्डन या सपिण्डीकरण श्राद्ध
१२८१ अवसर । विष्णुपुराण (३।१३।२६) ने भी ऐसे ही नियम बतलाये हैं और सपिण्डीकरण को एकोद्दिष्ट श्राद्ध कहा है । अपरार्क (१० ५४० ) ने लम्बे विवेचन के उपरान्त आहिताग्नि के लिए तीन काल दिये हैं; १२वाँ दिन, आशौचावधि के एवं मृत्यु के उपरान्त प्रथम अमावस्या के बीच में कोई दिन या आशौच के उपरान्त प्रथम अमावस्या । इसने उनके लिए जिन्होंने पवित्र अग्नियाँ नहीं जलायी हैं (अर्थात् जो आहिताग्नि नहीं हैं ) चार काल दिये हैं, यथा- एक वर्ष, छः मासों, तीन पक्षों या किसी शुभ अवसर में । मदनपारिजात ( पृ० ६३१ ) ने व्यास का एक श्लोक उद्धृत कर कहा है कि सपिण्डन श्राद्ध के लिए १२वाँ दिन उपयुक्त है, क्योंकि कुलाचार बहुत हैं, मनुष्य की आयु छोटी है और शरीर अस्थिर है।' विष्णुधर्मसूत्र (२१।२० ) ने व्यवस्था दी है कि शूद्रों के लिए मृत्यु के पश्चात् केवल १२वाँ दिन ( बिना मन्त्रों के) सपिण्डीकरण के लिए निश्चित है । गोभिल ने कहा है कि सपिण्डीकरण के उपरान्त प्रति मास श्राद्ध नहीं करने चाहिए, किन्तु गौतम ( या शौनक, जैसा कि अपरार्क, पृ० ५४३ ने कहा है) का मत है कि उनका सम्पादन एकोद्दिष्ट rai की पद्धति के अनुसार हो सकता है। भट्टोजि" का कथन है कि जब एक वर्ष के पूर्व सपिण्डीकरण हो जाता है तो उसके (सपिण्डीकरण के) पूर्व ही षोडश श्राद्धों का सम्पादन हो जाना चाहिए, किन्तु इसके उपरान्त भी वर्ष या उचित कालों में मासिक श्राद्ध किये जाने चाहिए। याज्ञ० ( १।२५५ ) एवं विष्णुध ० (२१।२३) में आया है कि यदि एक वर्ष के भीतर ही सपिण्डीकरण हो जाय, तब भी एक वर्ष तक मृत ब्राह्मण के लिए एक घड़ा जल एवं भोजन देते रहना चाहिए। उशना का कथन है कि उस स्थिति में जब कि सभी उत्तराधिकारी अलग-अलग हो जाते हैं, एक ही व्यक्ति ( ज्येष्ठ पुत्र) द्वारा नव श्राद्धों, षोडश श्राद्धों एवं सपिण्डीकरण का सम्पादन किया जाना चाहिए, किन्तु प्रचेता ने व्यवस्था दी है कि एक वर्ष के पश्चात् प्रत्येक पुत्र अलग-अलग श्राद्ध कर सकता है । "
शांखायनगृह्य० (५९), कौषीतकिगृह्य ० (४/२), बौ० पितृमेधसूत्र ( ३।१२।१२), कात्यायनश्राद्धसूत्र ( कण्डिका ५ ), याज्ञ० ( १।२५३ - २५४), विष्णु पुराण (३।१३।२७), विष्णुध० (२१।१२-२३), पद्म० ( सृष्टि० १०।२२-२३), मार्कण्डेय ० ( २८।१२-१८), गरुड ० ( १।२२० ), विष्णुधर्मोत्तर ० (२।७७), स्मृत्यर्थसार ( पृ० ५७-५८), निर्णयसिन्धु (३, पृ० ६१४) आदि ग्रन्थों में सपिण्डन या सपिण्डीकरण की पद्धति दी हुई है । यह संक्षेप में निम्न है - ब्राह्मणों को एक दिन पूर्व आमन्त्रित किया जाता है, अग्नौकरण होता है और जब ब्राह्मण लोग भोजन करते रहते हैं उस समय वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है (बौ० पितृमेधसूत्र, ३।१२।१२ ) । वैश्वदेव ब्राह्मणों का सम्मान किया जाता है, इसमें काम एवं काल विश्वेदेव होते हैं (बृहस्पति, अपरार्क, पृ० ४७८; कल्पतरु, श्रा०, पृ० १४२ एवं स्मृतिच०, श्रा०, पृ० ४४२-४४३), धूप एवं दीप दिये जाते हैं और 'स्वधा' एवं 'नमस्कार' होते हैं । चन्दनलेप, जल एवं तिल से युक्त चार पात्र अर्घ्य के लिए तैयार किये जाते हैं, जिनमें एक प्रेत के लिए और तीन उसके पितरों के
६. आनन्त्यात्कुलधर्माणां पुसां चैवायुषः क्षयात् । अस्थिरत्वाच्छरीरस्य द्वादशाहो प्रशस्यते ॥ व्यास ( मदनपा०, पृ० ६३१) । श्रा० क्रि० कौ० (१० ३५०) ने इसे व्याघ्र की उक्ति माना है । और देखिए भट्टोजि (चतुविंशतिमत०, ५० १७६) एवं श्राद्धतस्त्र ( पृ० ३०१ ) ।
७. यदा संवत्सरपूर्तेः प्रागेव सपिण्डीकरणं क्रियते तदा यद्यपि षोडश श्राद्धानि ततः प्रागेव कृतानि, श्राद्धानि षोडशावस्वा न कुर्यात्तु सपिण्डनम् -- इति वृद्धवसिष्ठोक्तेः, तथापि स्वस्वकाले पुनरपि मासिकादीन्यावर्तनीयानि । भट्टोजि (चतुविंशतिमतसंग्रह, पृ० १७१) ।
८. नवश्राद्धं सपिण्डत्वं श्रद्धान्यपि च षोडश । एकेनैव हि कार्याणि संविभक्तधनेष्वपि ॥ उशना (अपरार्क, ५०५२४; मिता०, याज्ञ० १।२५५ ) यह श्लोक गरुड़० ( प्रेतखण्ड, ३४।१२८-१२९) में भी आया है ।
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