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________________ १२८० धर्मशास्त्र का इतिहास १२ मासों (वर्ष भर) में किये जाते हैं। लोगाक्षि (मिता०, याज्ञ० १।२५५; निर्णयसिन्धु, पृ० ५९९; भट्टोजि, चतुविंशतिमतसंग्रह, पृ० १६८) आदि का कथन है कि एकोद्दिष्ट श्राद्धों की पद्धति के अनुसार १६ श्राद्धों के सम्पादन के उपरान्त सपिण्डन करना चाहिए। मदनपारिजात (पृ० ६१५), निर्णयसिन्धु (३, पृ० ५९९) आदि का कहना है कि मत-मतान्तरों में देशाचार, अपनी वैदिक शाखा एवं कुल की परम्परा का पालन करना चाहिए। मृत्यु के ग्यारहवें दिन के श्राद्ध के विषय में दो मत हैं--यह स्मरण रखना चाहिए कि याज्ञ० (३।२२) ने व्यवस्था दी है कि चारों वर्गों के लिए मृत्यु का आशौच क्रम से १०, १२, १५ एवं ३० दिनों का होता है। शंख एवं पैठीनसि द्वारा एक मत प्रकाशित है कि मरणाशौच के रहते हए भी ११वें दिन श्राद्ध अवश्य करना चाहिए (उस समय उस कृत्य के लिए कर्ता पवित्र हो जाता है)। दूसरा मत मत्स्य एवं विष्णुधर्मसूत्र (२१११) का है कि प्रथम श्राद्ध (एकोद्दिष्ट) आशौच की परिसमाप्ति पर करना चाहिए। मृत संन्यासियों के विषय में उशना (मिता०, याज्ञ० ११२५५; परा० मा० ११२, पृ० ४५८ एवं श्रा० क्रि० कौ०, पृ० ४४५) ने व्यवस्था दी है कि संन्यास (कलियुग में केवल एकदण्डी प्रकार) के आश्रम में प्रविष्ट हो जाने से वे प्रेत-दशा में नहीं आते, उनके लिए पुत्र या किसी सम्बन्धी द्वारा एकोद्दिष्ट एवं सपिण्डीकरण नहीं किया जाना चाहिए। केवल ११वें दिन पार्वण श्राद्ध करना चाहिए, जो इसके पश्चात् भी प्रति वर्ष किया जाता है। शातातप (मदन पा०, पृ० ६२७; श्रा० कि० को०, पृ० ४४५ एवं अपरार्क, पृ० ५३८) ने भी कहा है कि संन्यासी के लिए एकोद्दिष्ट, जल-तर्पण, पिण्डदान, शवदाह, आशौच नहीं किया जाना चाहिए, केवल पार्वण श्राद्ध कर देना चाहिए। प्रचेता (मिता०, याज्ञ० ११२५६) का कथन है कि संन्यासी के लिए एकोद्दिष्ट एवं सपिण्डीकरण नहीं होना चाहिए, केवल भाद्रपद (आश्विन) के कृष्ण पक्ष में प्रति वर्ष मृत्यु-दिवस पर पार्वण कर देना चाहिए। शिवपुराण (कैलाससंहिता) ने संन्यासी की मृत्यु पर ११वें एवं १२वें दिन के कृत्यों का वर्णन किया है (अध्याय २२ एवं २३)। . नव श्राद्धों में धूप एवं दीपों का प्रयोग नहीं होता। वे मन्त्र जिनमें 'पितृ' एवं 'स्वधा नमः' जैसे शब्द प्रयुक्त हए हैं. छोड दिये जाते हैं और 'अन' शब्द का भी प्रयोग नहीं होता, ब्राह्मणों को सुनाने के लिए जप एवं मन्त्रोच्चारण भी नहीं होते । जैसा कि ब्रह्मपुराण में आया है, वे श्राद्ध जो आशौच की परिसमाप्ति के उपरान्त १२वें दिन तथा मास के अन्त में या आगे भी घर में ही किये जाते हैं, एकोद्दिष्ट कहे जाते हैं। इससे प्रकट होता है कि नव श्राद्धों का सम्पादन (जो आशौच के दिनों में होता है) मृत्यु के स्थल, दाह के स्थल पर या वहाँ जहाँ जल-तर्पण एवं पिण्डदान होता है, कया जाता है, घर में नहीं (देखिए स्मृतिच०, आशौच, पृ० १७६)। कुछ लोगों के मत से नवमिश्र श्राद्ध में मन्त्रों का प्रयोग नहीं होता। प्राचीन काल में और आजकल भी षोडश श्राद्ध ग्यारहवें दिन किये जाते हैं। कदाचित ही कोई सपिण्डीकरण के लिए अब वर्ष भर रुकता हो, प्राचीन काल में ऐसी व्यवस्था थी कि आपत्-काल में सपिण्डीकरण का सम्पादन एक वर्ष के भीतर भी षोडश श्राद्ध करने के बाद किया जा सकता है। किन्तु आजकल यह अपवाद नियम बन गया है। सपिण्डीकरण या सपिण्डन से पिण्ड प्राप्त करने वाले पितरों के समाज में मृत व्यक्ति को मिलाया जाता है। प्राचीन ग्रन्थों में इसके लिए कई काल व्यवस्थित किये गये हैं। कौषीतकि-गृह्य० (४।२) के मत से मृत्यु के पश्चात् एक वर्ष के अन्त में या तीन पक्षों के अन्त में या किसी शुभ घटना के होने पर (पुत्रजन्म या विवाह के अवसर पर) यह श्राद्ध करना चाहिए । भारद्वाज-गृह्य (३।१७) ने इसके सम्पादन की अनुमति मृत्यु के पश्चात् एक वर्ष के अन्त में या ११वें या छ या चौथे मास में या १२वें दिन में दी है। बौ० पितृमेधसूत्र (२।१२।१) ने सपिण्डीकरण के लिए पाँच काल दिये हैं; एक वर्ष, ११वां या छठा या चौथा महीना या १२वाँ दिन। गरुड० (प्रेतखण्ड, ६१५३-५४) के मत से सपिण्डीकरण के काल हैं वर्ष के अन्त में, छ:मासों के अन्त में, तीन पक्षों के अन्त में, १२वा दिन या कोई शुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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