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________________ अध्याय १० एकोद्दिष्ट एवं अन्य श्राद्ध सभी श्राद्धों के आदर्श स्वरूप पार्वण श्राद्ध के लम्बे विवेचन के उपरान्त हम अब एकोद्दिष्ट श्राद्ध पर विचार करेंगे, जो पार्वण श्राद्ध का एक संशोधन या परिमार्जन मात्र है। 'एकोद्दिष्ट' शब्द का अर्थ है 'वह जिसमें एक ही मृत व्यक्ति उद्दिष्ट रहता है' अर्थात् जिसमें एक ही व्यक्ति का आवाहन होता है या जिसमें एक ही व्यक्ति का कल्याण निहित है ।' पार्वण श्राद्ध में तीन पितर उद्दिष्ट रहते हैं अतः वह एकोद्दिष्ट से भिन्न है । शाखा० गृ० (४१२ ), बौधा० गृ० (३|१२|६), कात्यायन कृत श्राद्धसूत्र ( कण्डिका ४ ) एवं याज्ञ० ( १।२५१-२५२ ) में दोनों के अन्तर्भेद स्पष्ट रूप से व्यक्त किये गये हैं। इस श्राद्ध में एक अयं दिया जाता है, एक ही पवित्र होता है और एक ही पिण्ड दिया जाता है, आवाहन नहीं होता, अग्नौकरण नहीं किया जाता, विश्वे देवों के प्रतिनिधित्व के लिए ब्राह्मणों को आमन्त्रण नहीं दिया जाता; ब्राह्मण भोजन की सन्तुष्टि के विषय में प्रश्न 'स्वदितम् ' ( क्या इसका स्वाद अच्छा था ? ) के रूप में होता है और ब्राह्मण 'सुस्वदितम्' (इसका स्वाद सर्वोत्तम था) के रूप में प्रत्युत्तर देते हैं; 'यह अक्षय हो' के स्थान पर 'उपतिष्ठताम्' अर्थात् 'यह पहुँचे' ( मृत व्यक्ति के पास पहुँचे ) कहा जाता है; जब ब्राह्मण विसर्जित किये जाते हैं (जब भोजन के अन्त में ब्राह्मणों को विदा दी जाती है) तो 'अभिरम्यताम्' ( प्रसन्न हों) का उच्चारण होता है और वे 'अभिरताः स्म' (हम प्रसन्न हैं) कहते हैं । विष्णुपुराण (३।१३।२३-२६) एवं मार्कण्डेय पुराण ( २८/८-११ ) ने श्राद्धसूत्र एवं याज्ञ० का अनुसरण किया है।' शांखा० गृ० (४/२/७ ), मनु ( ३।२५७), मार्कण्डेय ( २८/११), (१।२५६ ) आदि के मत से द्विज व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् एक वर्ष तक, जब तक कि सपिण्डीकरण श्राद्ध न हो जाय, प्रत्येक मास में प्रेतात्मा के लिए इसी प्रकार का श्राद्ध किया जाता है। विष्णुधर्मसूत्र ( २१ २ ) ने कहा है कि प्रयुक्त मन्त्रों में उपयुक्त परिवर्तन ( ऊह ) करना चाहिए ('अत्र पितरो मादयध्वम्' के स्थान पर 'अत्र पितर् मादयस्व' अर्थात् 'हे पिता, यहाँ आनन्द करो' कहना चाहिए ) । एकोद्दिष्ट में 'ये च त्वामनु' (वे जो तुम्हारे बाद याज्ञ० १. एक उद्दिष्टो यस्मिन् श्राद्धे तदेकोद्दिष्टमिति कर्मनामधेयम् । मिता० ( याज्ञ० १।२५१ ) । एक स्थान पर और आया है - 'तत्र त्रिपुरुषोद्देशेन यत् क्रियते तत्पार्वणम्, एकपुरुषोद्देशेन क्रियमाणमेकोद्दिष्टम्' (मिता०, याज्ञ० १।२१७ ) । हलायुध ने श्राद्धसूत्र में कहा है--'एकोत्र सम्प्रदानत्वेनोद्दिष्ट इति ।' २. अकोद्दिष्टेषु नाग्नीकरणं नाभिश्रावणं न पूर्व निमन्त्रणं न दैवं न धूपं न दीपं न स्वधा न नमस्कारो नात्रापूपम् । बौ० ध० सू० ( ३|१२|६ ) । ३. अकोद्दिष्टम् एकोर्घ्य एकं पवित्रमेकः पिण्डो नावाहनं नाग्नीकरणं नात्र विश्वे देवा: स्वदितमिति तृप्तिप्रश्नः सुस्वदितमितीतरे ब्रूयुरुपतिष्ठतामित्यक्षय्यस्थानेऽभिरभ्यतामिति विसर्गोऽभिरताः स्म इतीतरे । श्राद्धसूत्र ४ ( कात्यायनीय) । ये ही शब्द कौषीतकि गृ० (४१२ ) में भी पाये जाते हैं । यजुर्वेदिश्रातत्त्व ( पृ० ४९५ ) में व्याख्या है -- 'एकं एकदलरूपं पवित्रम् ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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