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धर्मशास्त्र का इतिहास
और मासिक श्राद्ध का सम्पादन मासिश्राद्ध के उपरान्त होता है। आधुनिक काल में कोई भी प्राचीन नियमों के अनुसार मासिश्राद्ध या मासिक श्राद्ध नहीं करता । अब तो श्राद्ध एक ब्राह्मण को भोजन कराकर एवं कुछ आने दक्षिणा के रूप में देकर संपन्न कर लिया जाता है। श्राद्धतत्त्व ( भाग १, पृ० २५४ ) ने मत्स्य० एवं भविष्य ० का उद्धरण देते हुए कहा है कि यदि व्यक्ति प्रति मास पार्वणश्राद्ध करने में असमर्थ हो तो उसे, जब सूर्य कन्या, कुम्भ एवं वृषभ राशियों में हो, तो वर्ष में कम-से-कम तीन बार करना चाहिए, किन्तु यदि वह ऐसा भी नहीं कर सकता तो उसे, जब सूर्य कन्या राशि में हो, कम-से-कम एक बार अवश्य करना चाहिए ।
मिताक्षरा एवं दायभाग द्वारा दिये गये सपिण्ड के दो अर्थों के विषय में इस ग्रन्थ के खण्ड २, अध्याय ९ में लिखा जा चुका है । दायभाग ने घोषित किया है कि जो व्यक्ति जितनी ही अधिक मात्रा में मृत को पारलौकिक या आध्यात्मिक कल्याण देता है (श्राद्धों के सम्पादन द्वारा) और पिण्डदान करता है, वह मृत की सम्पत्ति के उत्तराधिकार की प्राप्ति में उतनी ही वरीयता पाता है। मिताक्षरा का कहना है कि उत्तराधिकार रक्त सम्बन्ध पर निर्भर है और मृत 'के सबसे अधिक समीप के व्यक्ति को वरीयता मिलती है। किन्तु मिताक्षरा के अन्तर्गत सम्पत्ति पाने वाले को मृत के ऋण (याज्ञ० २।५१) चुकाने पड़ते हैं और उसके लिए पिण्ड देना होता है। देखिए इस ग्रन्थ का
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खण्ड ३, अध्याय २९ ।
अधिकार की वरीयता स्थापित करने में एक बात पर ध्यान देना आवश्यक है और वह है व्यक्ति की योग्यता एवं उसके द्वारा दिये जानेवाले पिण्ड का प्रभाव या सामर्थ्य । सम्पत्ति प्राप्त कर लेने के उपरान्त पिण्डकृत्य करने के लिए व्यक्ति पर कोई न्यायपूर्ण दबाव डालने की विधि नहीं है (देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय २९) ।
यदि तीन पूर्व-पुरुषों में एक या अधिक जीवित हों तो श्राद्ध किस प्रकार किया जाना चाहिए? इस प्रश्न पर बहुत काल से विचार होता आया है । आश्व० श्री० (२।६।१६-२३) ने सर्वप्रथम गाणगारि, तौल्वलि एवं गौतम के मत दिये हैं और पुनः उनका खण्डन किया है। गाणगारि का कथन है कि तीन पूर्वजों में जो मृत हो गये हैं उन्हें पिण्ड देना चाहिए, किन्तु जो जीवित हों उन्हें व्यक्तिगत रूप में सम्मानित करना चाहिए, क्योंकि श्राद्ध-कृत्य पूर्व पुरुषों को सन्तुष्ट करने के लिए किया जाता है। तौत्वलि का कथन है कि पिण्ड सभी पूर्व पुरुषों को दिये जाने चाहिए, चाहे वे जीवित हों या मृत, क्योंकि श्राद्ध कृत्य में वे केवल गौण हैं। गौतम ने कहा है कि यदि पिता जीवित हो तो इससे आगे के तीन मृत पितरों को श्राद्ध-पिण्ड देने चाहिए। इसी प्रकार पितामह के आगे (यदि वह जीवित हो) और प्रपितामह के आगे यदि तीनों जीवित हों। आश्व० ने उत्तर दिया है--पिता, पितामह या प्रपितामह के आगे तीन पितरों को पिण्ड नहीं दिये जा सकते, क्योंकि ऐसा करने का अधिकार नहीं है; जिनके पश्चात् (तीन पीढ़ियों के भीतर) कोई पुरुष जीवित हो उन पूर्व पुरुषों के लिए पिण्डदान नहीं किया जा सकता । १९९ जीवितों के लिए अग्नि में होम किया जा सकता है। यदि सभी तीनों पूर्वज जीवित हों तो सभी पिण्डों को अग्नि में डाल देना चाहिए, या कृत्य ही नहीं किया जाना चाहिए। कात्यायन श्री०सू० (४।१।२३-२७) ने व्यवस्था दी है कि पिण्ड केवल मृत पूर्वजों को दिये जाने चाहिए; अतः यदि किसी का पिता जीवित हो या कोई ऐसा मृत
१११. वैदिक उक्तियों के अनुसार पिता से आरम्भ कर तीन पूर्वपुरुषों को पिण्ड दिये जाते हैं। मनु (९।१८६) में भी ऐसा ही है । अतः स्पष्ट है कि चौथी या पाँचवीं या छठी पीढ़ी के पूर्वपुरुषों को पिण्ड देने के लिए कोई प्राचीन प्रमाण नहीं है।
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