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उत्तर भारत की पार्वण-भाड विधि
१२७३ (दयाल) हों।' ब्राह्मण प्रत्यत्तर देते हैं 'ऐसा ही हो,' वह कहता है-'हमारा कूल बढ़े। वे कहते हैं-'ऐसा ही हो।' वह प्रार्थना करता है--'हमारे कुल में दाता बढ़ें।' वे कहते हैं-'ऐसा ही हो।' वह प्रार्थना करता है'वेद और सन्तति बढ़े।' वे कहते हैं-'वैसा ही कहो।' वह कहता है-'मुझसे श्रद्धा न दूर हटे।' वे कहते हैं'न दूर हो।' वह कहता है--'हमारे पास प्रचुर द्रव्य हो जिसका हम दान कर सकें।' वे प्रत्युत्तर देते हैं-'ऐसा ही हो।' आशीर्वाद पाने के पश्चात् वह पवित्रों के साथ स्वधा-वाचनीय नामक कुशों (अग्रभागो एवं पवित्रों के सहित) को (पिण्डों के पास भूमि पर या पिण्डों पर ही जैसा कि 'देवयाज्ञिक' आदि में आया है) रखता है। वह (सभी ब्राह्मणों या मूर्धन्य से) पूछता है--'क्या मैं आप लोगों से स्वधा कहने को कहूँ ?' उनसे अनुमति मिलने पर वह प्रार्थना करता है--'पितरों के लिए स्वधा हो, पितामहों, प्रपितामहों, (मातृवर्ग के) नाना, परनाना, बड़े परनाना के लिए स्वधा हो।' जब ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि 'स्वधा हो तो वह ऊर्ज वहन्तीः' (वाज० सं० २।३४)पाठ के साथ, स्वधावाचनीय कुशों पर जल छिड़कता है। तब वह उलटे मुंह वाले पात्र को सीघा करता है और अपनी योग्यता के अनुसार ब्राह्मणों को दक्षिणा देता है। वह दैव ब्राह्मणों से कहलवाता है--सभी देव प्रसन्न हों।' तब वह सभी ब्राह्मणों को 'बाजे बाजे' (वाज० सं०९।१८) के साथ विदा करता है और 'आ मा वाजस्य' (वाज० सं० ९।१९) के साथ (गाँव की सीमा तक) उनका अनुसरण करता है और उनकी प्रदक्षिणा कर अपने घर लौट आता है।"
___ यह ज्ञातव्य है कि दर्शों पर पिण्डों को रखने के पश्चात् एवं ब्राह्मणों को बिदा करने के पूर्व बंगाल के पार्वण-श्राद्ध की पद्धति में, जो हलायुध के ब्राह्मणसर्वस्व एवं रघुनन्दन के यजुर्वेदि-श्राद्धतत्त्व पर आधारित है, कुछ अन्य बातें भी जोड़ दी गयी हैं। कर्ता उत्तराभिमुख होकर कहता है-'हे पितर लोग, यहाँ सन्तोष प्राप्त करो और अपने-अपने भाग पर बैलों की भांति आओ।' तब वह अपने पूर्व आसन पर आकर कहता है-'पितर लोग सन्तुष्ट हुए और अपने-अपने भाग पर बैल की भाँति आये।' तब वह अपनी धोती के एक भाग को, जो कटि में खोंसा हुआ था, खींच लेता है और हाथ जोड़ता है, अर्थात् छ: बार नमस्कार करता है और मन्त्र 'नमो वः पितरो रसाय' (वाज० सं० २।३२) का पाठ करता है। वह पिण्डों को सूंघता है और मध्यम पिण्ड पुत्र की इच्छा करनेवाली पत्नी को देता है तथा मन्त्र 'आधत्त' ( वाज० सं० २।३३ ) का पाठ करता है।१५०
स्थानाभाव से हम आधुनिक हिरण्यकेशियों की पार्वणश्राद्ध-पद्धति पर प्रकाश नहीं डाल सकते। यह बहुत अंशों में आश्व० गृ० की पद्धति के साथ चलती है, मुख्य अन्तर यह है कि बहुत-से मन्त्र भिन्न हैं। गोपीनाथ की संस्काररत्नमाला में पृ० ९८५ से आगे इसी का उल्लेख है। इस अन्तिम ग्रन्थ की एक विशेषता यह है कि इसने अन्तर दिखाने के लिए बाल की खाल निकाली है। पृ० ९८५ पर इसमें अमावास्या पर किये जानेवाले (पिण्डपितयज्ञ के अतिरिक्त) दो श्राद्धों की ओर संकेत है, यथा--मासि-श्राद एवं मासिक-श्राद। पहले का वर्णन हिरण्यकेशी धर्मसूत्र में एवं दूसरे का गृह्यसूत्र में हुआ है। गोपीनाथ ने आगे कहा है कि गृह्यसूत्र में वर्णित अन्य श्राद्धों की पद्धति पर ही मासिक श्राद्ध अवलम्बित है, और मासिश्राद्ध धर्मशास्त्रों में वर्णित श्राद्धों पर, यथा महालय श्राद्ध या सांवत्सरिक श्राद्ध। उन्होंने यह भी कहा है कि दर्शश्राद्ध ही मासिश्राद्ध है (पृ० ९८८), मासिक श्राद्ध प्रत्येक दर्श या वर्ष में किसी दर्श पर किया जा सकता है। मनु (३।१२२) के मत से मासिश्राद्ध पिण्डपितृयज्ञ के तुरन्त बाद ही किया जाता है
११०. देखिए मनु (३।२१८)।
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