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धर्मशास्त्र का इतिहास
( पलाश, उदुम्बर आदि) से बने पात्रों में जल भरता है, जिनमें 'शं नो देवी' (वाज० सं० ३६।१२, 'देव जल हमारे सुख के लिए हों आदि) मन्त्र के साथ पवित्र डुबोया रहता है ( वह दैवकृत्य के लिए पात्र में यव रखता है)। वह प्रत्येक पात्र ( चमस) में तिलोसि' (आश्व० गृ० ७।७-८ ) के साथ तिल डालता है । वह प्रत्येक ब्राह्मण ( पहले दैव और तब पित्र्य) के हाथ में, जिसमें पवित्र रहता है, जल ढारता है और नीचे सोने, चाँदी, ताम्र, खड्ग, मणिमय पात्र या कोई पात्र या पत्रों के पात्र रखे रहते हैं। ऐसा करते समय 'या दिव्या आपः' मन्त्र का पाठ होता है। जल इन शब्दों के साथ दिया जाता है - 'हे पिता, अमुक नाम यह आपके लिए अर्घ्य है' (तब अन्य पितरों को दिया जाता है) । ( पिता वाले) प्रथम पात्र में अन्य पात्रों के शेष जल को, जो अन्य पितरों वाले पात्रों का होता है, डालकर वह उसे यह कहकर उलटा कर देता है--'तुम पितरों के स्थान हो ।' यहीं पर (पित्र्य ब्राह्मणों को ) गन्ध, चन्दन लेप पुष्प, धूप, दीप एवं वस्त्र दिये जाते हैं । १०८
एक अन्य पात्र में श्राद्ध के लिए पहले से ही बने भोजन को रखकर और उसमें घी मिलाकर कर्ता कहता है— 'मैं अग्नौकरण करूँगा।' 'अवश्य करों' की अनुमति पाकर वह मृह्य अग्नि में पिण्डपितृयज्ञ की भाँति आहुतियाँ डालता है। इसके उपरान्त (अग्नीकरण से ) शेष भोजन को आमन्त्रित ब्राह्मणों के पात्रों में परोसकर वह प्रत्येक पात्र के ऊपर एवं नीचे स्पर्श करता है और इस मन्त्र का पाठ करता है--' पृथिवी तुम्हारा पात्र है आदि' ( वह कुछ भोजन अलग रख लेता है जिससे आगे चलकर पिण्ड बनाये जाते हैं) तब ( पात्रों में भोजन परोसने के उपरान्त) वह एक ऋचा (ऋ०१।२२।१७, 'इदं विष्णुविचक्रमे ' ) के साथ ब्राह्मणों के अँगूठे को भोजन से लगाता है। तब वह ( यवों को दैव ब्राह्मणों के समक्ष मौन रूप से) तिलों को 'अपहता असुरा रक्षांसि वेदिषद:' (वाज० सं० २।२९ ) के साथ बिखेरता है। इसके उपरान्त वह (भोजनकर्ता या मृत व्यक्ति द्वारा चाहा गया) गर्म भोजन परोसता है या जो भी कुछ वह दे सके खाने को देता है। जब ब्राह्मण लोग खाने में व्यस्त रहते हैं वह निम्न मन्त्रों का जप करता है--ओम् एवं व्याहृतियों से आरम्भ करके गायत्री का एक या तीन बार पाठ, राक्षोघ्नी (४।४।१-१५) 'उदी रतामवर उत्' ऋचा से आरम्भ होनेवाले मन्त्र, पुरुषसूक्त (ऋ० १०।१०।१-१६), अप्रतिरथ सूक्त (ऋ० १० १०३।१-१३) आदि । इसके उपरान्त ब्राह्मणों को सन्तुष्ट जानकर वह उनके समक्ष कुछ भोजन बिखेर देता है और प्रत्येक ब्राह्मण को एक बार ( भोजनोपरान्त अपोशन के लिए) अल देता है। तब उसे गायत्री मन्त्र, तीन मधुमती मन्त्र ( ऋ० १९०।६-८ ) एवं मधु (तीन बार ) का पाठ करना चाहिए। तब उसे पूछना चाहिए -- 'क्या आप सतुष्ट हो गये ?' उनके द्वारा 'हम सन्तुष्ट हो गये' कहे जाने पर वह उनसे शेष भोजन के लिए अनुमति माँगता है, सभी भोजन को एक पात्र में एकत्र करता है ( उससे पिण्ड निर्माण करने के लिए); जहाँ ब्राह्मणों ने भोजन किया हो उसी स्थल के पास वह पिण्डों के दो दल (तीन पितृपक्ष और तीन मातृपक्ष के पूर्वपुरुषों के लिए) बनाता है और उन पर जल ढारता है । कुछ लोगों का कथन है कि ब्राह्मणों के आचमन के उपरान्त पिण्ड देने चाहिए। आचमन के उपरान्त वह ब्राह्मणों को जल, पुष्प, अक्षत एवं अक्षय्योदक देता है। इसके पश्चात् वह कल्याणार्थ प्रार्थना करता है— 'पितर लोग अघोर
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१०८. छः पितर होते हैं, तीन पितृपक्ष के और तीन मातृपक्ष के, अतः छः पात्र होते हैं। पाँच पात्रों की जल-बूंद प्रथम पात्र में डाली जाती हैं । रघुनन्दन ने इतना जोड़ दिया है कि प्रथम पात्र पितामह के पात्र से ढका रहता है और फिर उलटे मुंह रख दिया जाता है। ब्राह्मणसर्वस्व ने व्याख्या की है--तत्र च पितरस्तिष्ठन्तीति बृहस्पतिः । ' आवृतास्तत्र तिष्ठन्ति पितरः श्राद्धदेवताः ।'
१०९. 'अक्षय्योदक' के विषय में गदाधर की व्याख्या यों है- 'अक्षय्योदकशब्देन दत्तान्नपानादेरानन्त्यप्रार्थनसम्बन्धि जलमभिधीयते । तच्च पितृब्राह्मणेभ्य एवेति कर्कः । सर्वेभ्यो दद्यादिति स्मृत्यर्थ सारे ।'
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