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________________ fe-girों में किसी के जीवित रहने पर पार्वण श्राद्ध करने न करने का विचार १२७५ पूर्वज हो जिसके एवं कर्ता के बीच कोई पूर्वज जीवित हो, तो वह केवल अग्नि में होम मात्र कर सकता (पिण्डदान नहीं), या वह कृत्य ही न करे । जातूकर्यं ने कहा है कि यदि कर्ता एवं किसी मृत पूर्वज के बीच कोई पूर्वज जीवित हो ( अर्थात् पिता जीवित हो ) तो पिण्डदान सम्भव नहीं है, क्योंकि श्रुति वचन है- 'जीवित पूर्वज से आगे के पूर्वजों को पिण्ड नहीं देना चाहिए।' मनु ( ३।२२० - २२२ ) ने इस प्रश्न पर यों विचार किया है--' यदि कर्ता का पिता जीवित हो तो उसे पितामह से आरम्भ करके आगे के तीन पूर्वजों को पिण्ड देना चाहिए, या वह अपने पिता से भोजन के लिए उसी प्रकार प्रार्थना कर सकता है जैसा कि किसी अपरिचित अतिथि साथ किया जाता है और पितामह एवं प्रपितामह को पिण्ड दे सकता है। यदि पिता मर गया हो और पितामह जीवित हो तो वह केवल पिता एंव प्रपितामह को पिण्ड दे सकता है (अर्थात् केवल दो पिण्ड दिये जायेंगे) या जीवित पितामह अपरिचित अतिथि के समान, मानो वे किसी मृत पूर्वपुरुष के प्रतिनिधि हों, भोजन के लिए आमन्त्रित करना चाहिए या जीवित पितामह की अनुमति से वह पिता प्रपितामह एवं वृद्ध प्रपितामह को पिण्ड दे सकता है ।' विष्णुधर्मसूत्र (अध्याय ७५ ) में भी इसी प्रकार के नियम हैं। स्कन्द० ( ६ । २२५।२४-२५), अग्नि० ( ११७/५८-५९) आदि पुराणों ने भी इस प्रश्न पर विचार किया है। गोभिलस्मृति (२।९३) ने भी इस प्रश्न पर एक लम्बी उक्ति द्वारा विचार किया है, इसका यह श्लोक नीचे टिप्पणी में दिया जा रहा है। बहुत सी टीकाओं एवं निबन्धों में मत-मतान्तर दिये हुए हैं, यथा मिता० ( याज्ञ० १।२५४), कल्पसूत्र ( श्रा०, पृ० २४०), श्राद्धक्रियाकौमुदी ( पृ० ५५२-५५६) एवं निर्णयसिन्धु ( ३, पृ० ४९९-५०३ ) । इन विभिन्न मतों में समझौता कराना असम्भव है । कल्पतरु ( श्रा०, पृ० २४० ) का कथन है कि उसके लिए, जिसका पिता अभी जीवित है, तीन विकल्प हैं -- ( १ ) उसे अपने जीवित पिता के तीन पूर्वपुरुषों को, जिन्हें उसका पिता पिण्ड देता है, पिण्ड देना चाहिए (मनु ३।२२०, विष्णु ०७५।१); (२) वह केवल अग्नि में संकल्पित वस्तु छोड़ सकता है. ( आश्व० श्री० २।६।१६-२३); (३) उसे पिण्डपितृयज्ञ या पार्वण श्राद्ध नहीं करना चाहिए ( गोभिल० २।९३ ) । निर्णयसिन्धु का कथन है कि विभिन्न लेखकों ने अगणित विकल्प दिये हैं, किन्तु वे कलियुग में वर्ज्य हैं। एक मत यह है कि जीवित पिता वाले को पार्वण श्राद्ध नहीं करना चाहिए। वास्तविक निष्कर्ष यह है कि उन्हीं को पिण्ड देना चाहिए जिन्हें कर्ता के पिता पिण्ड देते हैं। मनु (३।२२०) ने एक विकल्प दिया है— पिता को भोजन के लिए आमन्त्रित करना चाहिए और गन्ध, धूप, दीप आदि से सम्मानित करना चाहिए तथा मृत पितामह एवं प्रपितामह को पिण्ड देना चाहिए। यदि एक या दो पूर्वज (तीन में) जीवित हों और उनके वंशज को श्राद्ध करने की अनुमति हो तो विकल्पों की कई कोटियाँ उपस्थित होती हैं, जिन्हें हम स्थानाभाव एवं अनुपयोगिता की दृष्टि से यहाँ नहीं दे रहे हैं । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि लोगों के मन में, यहाँ तक कि विद्वानों के मन में भी ऐसी धारणा बँध गयी थी कि श्राद्धों से महात् कल्याण होता है, इस दशा में पिता के जीवित रहते तथा जब वह स्वयं पितरों का श्राद्ध कर सकता और पिण्ड दे सकता है, तब उसकी आज्ञा से पुत्र भी उन्हीं तीन पितरों को पिण्ड दे सकता है। विष्णुधर्मसूत्र ( ७५-८) ने माता के पूर्वपुरुषों के लिए 'जीवत् पितृक' विधि ही दी है (कहीं-कहीं आवश्यकतानुसार मन्त्रों में परिवर्तन कर दिया गया है) । ऐसे ही नियम ११२. सपितुः पितृकृत्येषु अधिकारो न विद्यते । न जीवन्तमतिक्रम्य किंचिद् दद्यादिति श्रुतिः ॥ गोभिल० (२ 1 (९३); श्राद्ध क्रियाकौमुदी ( पृ० ५५२ ) । मिलाइए कात्या० श्र० सू० (४।१।२२-२७) । ११३. मातामहानामप्येवं श्राद्धं कुर्याद्विचक्षणः । मन्त्रोहेण यथान्यायं शेषाणां मन्त्रवजितम् ॥ विष्णुधर्म ० (७५१८ ) । ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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