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________________ १२६६ धर्मशास्त्र का इतिहास पिण्डों के विषय में कुछ बातें यहाँ पर (आगे के संकेतों के लिए) कह दी जा रही हैं। पिण्डों के आकार के विषय में अधिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। मरीचि (अपरार्क, पृ० ५०७) ने व्यवस्था दी है कि पार्वण श्राव में पिण्ड का आकार हरे आमलक जैसा होना चाहिए, एकोदृिष्ट में आकार बिल्व (बेल) के बराबर होना चाहिए, किन्तु आशौच के काल में प्रति दिन दिये जानेवाले पिण्ड का आकार (नवश्राद्धों में) उपर्युक्त आकार से अपेक्षाकृत बड़ा होना चाहिए। स्कन्द० (७॥१॥२०६, स्मति च०,श्रा०,१०४७५) में आया है कि पिण्ड इतना बड़ा होना चाहिए कि दो वर्ष का बछड़ा बड़ी सरलता से उसे अपने मुख में ले ले। अंगिरा (स्मृतिच०, पृ० ४७५ एवं हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १४२९) ने व्यवस्था दी है कि पिण्ड का आकार कपित्थ या बिल्व या मुर्गी के अण्डे या आमलक या बदर फल के समान होना चाहिए। मैत्रायणीय-सूत्र (हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १४३० ;श्रा० प्र०, पृ० २५७) के अनुसार पितामह का पिण्ड पिता के पिण्ड से बड़ा और तीनों पिण्डों के मध्य में (आकार में) होना चाहिए और प्रपितामह का सब से बड़ा होना चाहिए। दूसरा प्रश्न यह है कि पिण्ड किस पदार्थ का होना चाहिए। यदि पिण्ड अग्नौकरण के पूर्व दिये जायँ तो उन्हें पक्व चावल (भात या चर) से बनाना चाहिए। यदि वे अग्नौकरण के पश्चात दिये जायँ तो (अग्नीकरण के पश्चात के शेषांश से) पके भोजन में तिल मिलाकर उन्हें बनाना चाहिए (याज्ञ० ११२४२)। यदि ब्रह्म-भोज के उपरान्त पिण्डों का अर्पण हो तो उनका निर्माण ब्रह्म-भोज से बचे पक्व भोजन से होना चाहिए और उसमें भात मिलाकर अ आहुति बनानी चाहिए, जैसा कि कात्यायन के श्राद्धसूत्र (३) में आया है। मत्स्यपुराण (१६।४५-४६) के मत पिण्डों को गोमूत्र एवं गोबर-मिश्रित जल से लिपे-पुते स्थान में दर्शों पर रखना चाहिए। देवल, ब्रह्माण्डपुराण एवं भविष्यपुराण म आया है कि भूमि पर चार अंगुल ऊँची एवं एक हाथ चौड़ी तथा वृत्ताकार या वर्गाकार बालुकावेदिका बनानी चाहिए, उसे उन पात्रों के समीप बनाना चाहिए जिनसे ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है और उस पर दर्भ रखकर पिण्ड रखे जाने चाहिए। वायपुराण का कथन है कि वेदिका या भूमि पर एक दर्भ की जड़ से निम्नलिखित मन्त्रों के साथ एक रेखा खींचनी चाहिए--'जो अशुद्ध है उसका मैं नाश करता हूँ, मैंने सभी असुर, दानव, राक्षस, पक्ष., पिशाच , गुह्यक एवं यातुधानों को मार डाला है, (सभी असुरों एवं राक्षसों को, जो देदिका पर बैठे हैं) मार डालो' (७५।४५-४६)। आप० श्रौ० (१।१०।२) मनु (३।२१७), विष्णुध० (७३।१७-१९), यम (हेमाद्रि, पृ० १४४०) कल्पतरु (श्रा०, प० २०३), महार्णवप्रकाश (हेमाद्रि में उद्धृत), हेमादि (श्रा०, पृ० १४४०-४२) एवं श्रा० प्र० (पृ० २६६-२६७) में छः ऋतुओं, 'नमो वः पितरों' (वाज० स० २।३२) के साथ पितरों के लिए नमस्कार और प्रत्येक पिण्ड रखते समय तीन मन्त्र बोलने को ओर संकेत किया गया है। कुछ लोगों के मत से ऋतुओं को 'रस', 'शोष' एवं अन्य चार शब्दों (वाज० सं० २।३२) के समान कहा गया है और कुछ लोगों के मत से ऋतुओं की अभ्यर्थना एवं पितरों के नमस्कार में अन्तर है। शौनकाथर्वणश्राद्ध-कल्प में पिण्डार्पण का क्रम उलट दिया गया है, अर्थात् पहले प्रपितामह को, तब पितामह को और अन्त में पिता को (हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १४४२)। आप० श्री० (१।९।४) ने 'पितामहप्रभृतीन वा' में इस विधि की ओर संकेत किया है। पिण्डों की प्रतिपत्ति के विषय में भी कई एक मत हैं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि वाज० सं० (११।३३) एवं अन्य सूत्रों ने ऐसी व्यवस्था दी है कि मध्य का (तीन पिण्डों में बीच का) पिण्ड कर्ता की पत्नी द्वारा खाया जाना चाहिए, यदि वह पुत्र की इच्छा रखती हो। मनु (३१२६२-२६३) ने भी कहा है कि धर्मपत्नी (सवर्ण पत्नी, जिसका विवाह अन्य असवर्ण पत्नियों से पहले हुआ है) को 'आधत्त पितरो गर्भम्' मंत्र के साथ मध्यम पिण्ड खा लेना चाहिए, तब वह ऐसा पुत्र पाती है जो लम्बी आयु वाला, यशस्वी, मेधावी, सम्पत्तिमान्, सन्ततिमान्, साधुचरण एवं सत् चित्त वाला होता है। यही नियम लघु-आश्वलायन (२३।८३) कूर्म० (२।२।७१), मत्स्य० (१६।५२), वायु० (७६।३१), विष्णुधर्मोत्तर० (१।१७१-१७८ एवं २२०।१४९), पद्म० (सृष्टि० ९।१२१) आदि पुराणों में भी पाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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