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________________ पिण्डों के निर्माण, दान आदि एवं बार के मुख्य अंग का विचार १२६७ जाता है। सामान्य पिण्डों के विषय में आश्व० श्री०(२१७४१४-१७)का कथन है कि मध्यर के अतिरिक्त अन्य पिण्डों को जल में या अग्नि में डाल देना चाहिए या ऐसा व्यक्ति उन्हें खा सकता है जिसे भोजन से अचि उत्पन्न हो गयी हो, या उसे असाध्य रोगों (राजयक्ष्मा या कोढ़) से पीड़ित लोग खा सकते हैं, जो या तो अच्छे हो जाते हैं या मर जाते हैं। गोभिलग० (४।३।३१-३४) ने व्यवस्था दी है कि पिण्डों को जल में या अग्नि में छोड़ देना चाहिए या किसी ब्राह्मण या गाय को खाने के लिए दे देना चाहिए। मनु (३।२६०-२६१) का भी यही कथन है किन्तु उसने इतना जोड़ दिया है कि वे किसी बकरी को भी खाने को दिये जा सकते हैं और पक्षियों को भी दिये जा सकते हैं, जैसी कि कुछ अन्य लोगों ने अनुमति दी है। याज्ञ० (११२५७), मत्स्य० (१६१५२-५३) एवं पद्म० (सृष्टि०, ९।१२०) ने भी उपयुक्त पिण्ड-प्रतिपत्ति की पांच विधियाँ दी हैं, किन्तु पद्म० ने यह भी जोड़ दिया है कि वे किसी भूमि-दूह पर भी रखे जा सकते हैं।" वराहपुराण (१९०-१२१) का कथन है कि कर्ता को प्रथम पिण्ड स्वयं खा जाना चाहिए और मध्य वाला अपनी पत्नी को दे देना चाहिए और तीसरे को जल में डाल देना चाहिए। अनुशासन० (१२५।२५।२६) ने व्यवस्था दी है कि प्रथम और तृतीय पिंड जल या अग्नि में छोड़ देना चाहिए और द्वितीय पत्नी द्वारा खा डाला जाना चाहिए। बृहस्पति (स्मृतिच०, श्रा०, पृ०४८६ एवं कल्पतरु, श्रा०, पृ० २२४) ने कहा है कि यदि पत्नी किसी रोग से पीड़ित हो या गर्भवती हो या किसी अन्य स्थान में हो, तो मध्यम पिंड किसी बैल या बकरी को खाने के लिए दे देना चाहिए। विष्णुधर्मोत्तर (१३१४११८) में आया है कि यदि श्राद्ध का सपादन तीर्थ में हो तो पिंडों को पवित्र जल में छोड़ देना चाहिए। अनुशासन (११५।३८-४०) तथा वायु० (७६।३२-३४) एवं ब्रह्म (२२०।१५०-१५२) जैसे पुराणों ने पिण्ड-प्रतिपत्ति से उत्पन्न फलों की चर्चा की है, यथा-गायों को पिण्ड खिलाने से सुन्दर लोगों की, जल में डालने से मेधा एवं यश की तथा पक्षो आदि को देने से दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। ब्रह्माण्ड० (उपोद्घात, १२।३१-३५) का कथन है कि गायों को देने से सर्वोतम वर्ण या रंग, मुर्गों को देने से सुकुमारता एवं कौओं को देने से दीर्घ जीवन की प्राप्ति होती है। यह ज्ञातव्य है कि सभी श्राद्धों में चावल (भात) या आटे के पिंड दिये जाने चाहिए। श्राद्धकल्पलता (१०८६-८९) में उन श्राद्धों के विषय में लम्बा विवेचन उपस्थित किया गया है जिनमें भोजन का पिंड-दान निषिद्ध है। उदाहरणार्थ, पुलस्त्य के मत से दोनों अयनों के दिनों पर, विषुवीय दिनों पर, किसी संक्रान्ति पर पिंड नहीं दिये जाने चाहिए और इसी प्रकार, यदि व्यक्ति पुत्रों तथा धन की इच्छा रखता है, तो उसे एकादशी, त्रयोदशी, मघा एवं कृत्तिका नक्षत्रों के श्राद्धों में पिंडदान नहीं करना चाहिए। श्राद्ध के प्रमुख विषय के बारे में तीन मत प्रतिपादित किये जाते हैं, जैसे--कुछ लोगों (यथा गोविन्दराज) का कयन है कि श्राद्ध में प्रमुख विषय या वस्तु या प्रधान कर्म ब्राह्मण-भोजन है और इस कथन के लिए वे मनु० १२९) के निम्न लिखित वचन को उद्धृत करते हैं---'देवों एवं पितरों के कृत्य में वेदज्ञान-शून्य ब्राह्मणों की अपेक्षा एक ही विद्वान् ब्राह्मण को भोजन कराया जा सकता है। ऐसा करने से कर्ता को अधिक फल प्राप्त होता ९६. पिण्डाश्च गोजविप्रेम्यो दद्यादग्नी जलेऽपि वा। वप्रान्ते वाय विकिरदापोभिरथ वाहयेत् ।। पद्म० (सृष्टि०, ९।१२०); अपरार्क (पृ० ५५०)एवं हेमाद्रि (श्रा०, पृ० १५०४) । पक्षियों को पिंड खिलाने की जो अनुमति दी गयी है वह स्वाभाविक ही है, क्योंकि ऐसा विश्वास किया गया था कि पितर लोग पक्षियों के रूप में विचरण किया करते हैं। और देलिए कूर्म० (२।२२।८३)। ९७. भक्षयेत् प्रथम पिणं परन्य देयं तु मध्यमम् । तृतीयमुदके दबाच्छाब एवं विधिः स्मृतः॥ वराह० (१९०११२१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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