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धावांग कर्मों के विविष रूप
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पिण्डदान संबन्धी मन्त्रपाठ के विषय में भी अति प्राचीन काल से कुछ मत-मतान्तर हैं। पूर्व-पुरुष को पिण्ड नाम, गोत्र एवं कर्ता-संबंध कहकर दिया जाता है।९२ कूछ लेखकों के मत से पिण्डदान का रूप यह है-'हे पिता, यह तुम्हारे लिए है, अमुक नाम . . . .अमुक गोत्र वाले।' तै० सं० (११८।५।१) एवं आप० मन्त्रपाठ (२।१०।१३) आदि ने निम्न और जोड़ दिया है-'और उनके लिए भी जो तुम्हारे पश्चात् आते हैं (ये च त्वामनु) गोभिलगृ० (४।३।६) एवं खादिरगृ० (३।५।१७) में सूत्र और लम्बा है-'हे पिता, यह पिण्ड तुम्हारे लिए है और उनके लिए जो तुम्हारे पश्चात् आते हैं और उनके लिए जिनके पश्चात् तुम आते हो।" तुम्हें स्वधा।' भारद्वाज गृ० (२।१२) ने कुछ परिवर्तन किया है (यांश्च त्वमत्रान्वसि ये च त्वामनु)। यह हमने पहले ही देख लिया है कि शतपथब्राह्मण ने तै० सं० के वचन का अनुमोदन नहीं किया है। उसने तर्क यह दिया है कि जब पूत्र अपने पिता को पिण्ड देते हुए कहता है कि 'यह तुम्हारा है और उनका भी जो तुम्हारे पश्चात् आते हैं, तो वह इसमें अपने को भी सम्मिलित कर लेता है, जो अशुभ है। गोभिलगृ० (४१३।१०-११; हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १४४३ एवं श्रा० प्र०, पृ० २६०) ने व्यवस्था दी है कि जब कर्ता अपने पितरों के नाम नहीं जानता है तो उसे प्रथम पिण्ड 'पृथिवी पर रहने वाले फ्तिरों को स्वधा' कहकर रखना चाहिए, दूसरा पिण्ड उनको जो वायु में निवास करते हैं स्वधा' यह कहकर और तीसरा पिण्ड ‘स्वर्ग में रहनेवाले पितरों को स्वधा' कहकर रखना चाहिए और मन्द स्वर से उसे यह कहना चाहिए-'हे पितर, यहाँ आनन्द मनाओ और अपने-अपने भाग पर जुट जाओ।' और देखिए ऐसी ही व्यवस्था के लिए यम (कल्पतरु, श्रा०, १०२०३)। विष्णुध० सु० (७३।१७-१९) में भी एसा ही है और मन्त्र हैं क्रम से पृथिवी दविरक्षिता', 'अन्तरिक्षं दविरक्षिता' एवं 'द्यौर्दविरक्षिता।' मेधातिथि (मनु ३।१९४) ने आश्व० श्री० आदि का अनुसरण करते हुए कहा है कि यदि पितरों के नाम न ज्ञात हों तो केवल ऐसा कहना चाहिए-'हे पिता, पितामह आदि।' यदि गोत्र न ज्ञात हो तो 'कश्यप गोत्र का प्रयोग करना चाहिए।१५
९२. अर्घदानेऽय संकल्पे पिण्डदाने तथा क्षये। गोत्रसम्बन्धनामानि यथावत्प्रतिपादयेत् ॥ पारस्कर० (अपरार्क, पृ० ५०६; हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १४३४; श्रा० प्र०, पृ० २५८)। सूत्र इस प्रकार का है-'अमुकगोत्रास्मत्पितरमुकशर्मन् एतत्तेऽन्नं (या ते पिण्डः) स्वधा नम इदममुकगोत्रायास्मत्पित्रे अमुकशर्मणे न ममेति' (हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १४३६) किन्तु यह सूत्र केवल वाजसनेयियों के लिए है। __९३. एतत्ते ततासो ये च त्वामनु, एतत्ते पितामहासौ ये च त्वामनु, एतत्ते प्रपितामह ये च त्वामनु । आप० म० पा० (२।२०।१३)।
९४. असाववनिक्ष्व ये चात्र त्वामनु यांश्च त्वमनु तस्मै ते स्वति । गोभिल गृ० (३।३।६) एवं खादिर गृ० (३।५।१७) । टोडरानन्द (श्राद्धसौख्य) ने यजुर्वेद एवं सामवेद के अनुयायियों के लिए निम्न सूत्र दिये हैं--'अमुकगोत्र पितरमुकशर्मनेतत्तेऽग्नं स्वधेति यजुर्वेदिनामुत्सर्गवाक्यम् । अमुकसगोत्र पितरमुकदेवशर्मनेतत्तेनं ये चात्र त्वामनु यांश्च त्वमनु तस्मै ते स्वधेति छन्दोगानाम् । मिलाइए श्राद्धतत्त्व (पृ० ४३७) एवं श्राद्धक्रियाकौमुदी (पृ०७०)।
९५. गोत्राज्ञानेप्याह व्याघ्रपाद:--गोत्रनाशे तु कश्यपः-इति । गोत्राज्ञाने कश्यपगोत्रग्रहणं कर्तव्यम् । कश्यपसगोत्रस्य सर्वसाधारणत्वात् । तथा च स्मृतिः। तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्य इति। स्मृतिच० (श्रा०, पृ० ४८१)।
और देखिए इन्हीं बातों के लिए श्रा०प्र० (पृ० २६०)। शूद्रकमलाकर (पृ० ४९) का कयम है--'यद्यपि तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्य इति शतपयश्रुतेः....कश्यपं गोत्रमस्ति तथापि श्राद्ध एव तत् ।' 'सर्वाः प्रजाः काश्यप्यः' -ये शब्द शतपथब्राह्मण (७।५।११५) के हैं।
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