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धर्मशास्त्र का इतिहास पृ० १४८५) का कथन है कि ब्राह्मणों द्वारा स्वस्ति' कहे जाने के पूर्व पात्रों को नहीं हटाना चाहिए; जातूकर्ण्य (स्मृतिच०, श्रा०, पृ० ४८२; हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १४८६) एवं स्कन्द० (नागरखण्ड, हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १४८६) का कथन है कि पात्र एवं उच्छिष्ट अंश कर्ता द्वारा या उसके पुत्र या शिष्य द्वारा उठाया जाना चाहिए किन्तु स्त्री या बच्चे या अन्य जाति के व्यक्ति द्वारा नहीं। मन (३२२५८) ने व्यवस्था दी है कि ब्राह्मणों के चले जाने के उपरान्त कर्ता को दक्षिण की ओर देखना चाहिए और पितरों से कल्याण की याचना करनी चाहिए (देखिए इस विषय में पुनः मनु (३।२५९), याज्ञ० (१।२४६), विष्णुव० सू० (७३।२८), मत्स्य० (१६।४९-५०)। आप० गृ० (२००९), आप० ध० (२।७। १७४१६),मन (३।२६४) एवं याज्ञ० (११२४९) ने कहा है कि कर्ता श्राद्ध के लिए बने एवं शेष अंश को अपनी पत्नी माता-पितृ-पक्ष के सम्बन्धियों के साथ यजुर्मन्त्र (आप० मन्त्रपाठ २।२०।२६) का उच्चारण (जीवन-श्वास में प्रवेश करते हुए मैं अमृत दे रहा हूँ; मेरी आत्मा अमरता के लिए ब्रह्म में प्रविष्ट हो गयी है) करके भोजन करता है। आप ग० एवं आप० ध० स० (२।७।१७।१६) में आया है कि ब्राह्मणों को परोसने के उपरान्त कर्ता को शेषांश से एक कौर भोजन कर लेना चाहिए। व्यास एवं देवल का कथन है कि श्राद्ध के दिन कर्ता को उपवास नहीं करना चाहिए (भले ही वह साधारणतः ऐसा करता हो, जैसा कि एकादशी या शिवरात्रि में)। ब्रह्मवैवर्तपुराण ने एक मार्ग निकाला है कि कर्ता को श्राद्ध-भोजन का शेषांश सूंघ मात्र लेना चाहिए। इसके विवेचन के लिए देखिए हेमाद्रि (श्रा०, १०, १५१९१५२१)। हेमाद्रि (पृ० १४८५) ने एक शिष्टाचार (जो आज भी किया जाता है) की ओर संकेत किया है कि कर्ता को आशीर्वचन मिल जाने के उपरान्त उसके पुत्र एवं पौत्र आदि को पिण्ड के रूप में स्थित पितरों की अभ्यर्थना करनी चाहिए। ब्राह्मणों को श्राद्ध की समाप्ति के उपरान्त खिलाये गये भोजन के गुणों की प्रशंसा करनी चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन के अपने पात्रों में असावधानी से भोज्य पदार्थ छोड़-छाड़ कर नहीं बैठना चाहिए, प्रत्युत दूध, दही, मधु या यवान्न (सतू) को पूरा खाकर भोज्य का थोड़ा अंश छोड़ना चाहिए।
ठीक किस समय पिण्डदान करना चाहिए? इसके उत्तर में कई एक मत हैं। शांखा० गृ० (४।१।९), आश्व० गु० (४१८११२), शंख (१४॥१.१), मनु (३।२६०-२६१), याज्ञ० (११२४२) आदि के मत से जब श्राद्धभोजन ब्राह्मण समाप्त कर लेते हैं तो कर्ता पिण्डदान करता है। पिण्डों का निर्माण तिलमिश्रित भात से होता है और किसी स्वच्छ स्थल पर दर्भो के ऊपर पिण्ड रखे जाते हैं; ये पिण्ड उस स्थान से, जहाँ ब्राह्मणों के भोजन-पात्र रहते हैं, एक अरत्नि दूर रहते हैं और कर्ता दक्षिणाभिमुख रहता है। यहाँ पर भी दो मत हैं; (१) ब्राह्मणों के भोजन कर लेने के उपरान्त आचमन करने के पूर्व पिण्डदान होता है (आश्व० गृ० ४।८।१२-१३; कात्यायनकृत श्राद्धसूत्र, कण्डिका ३), (२) ब्राह्मणों द्वारा मख धो लेने एवं आचमन कर लेने के उपरान्त पिण्डदान होता है। अन्य मत यह है कि पिण्डदान आमन्त्रित ब्राह्मणों को सम्मान देने या अग्नौकरण के पश्चात होता है और तब ब्राह्मण भोजन करते हैं। ब्रह्माण्डपुराण (उपोदघात०१२।२४-२६) ने बलपूर्वक कहा है कि यही स्थिति ठीक है, जैसा कि बहस्पति ने कहा है। विष्णुध० (७३।१५-२४) ने व्यवस्था दी है कि पितरों को तब पिण्ड देना चाहिए जब कि ब्राह्मण खा रहे हों। चौथा मत यह है कि (आप० गृ० २४।९, हिरण्यकेशि- गृ० २।१२।२-३) कर्ता को, जब बाह्मण खाकर जा चुके हों और जब वह उनका अनुसरण कर प्रदक्षिणा करके लौट आया हो, तब पिण्डदान करना चाहिए। इस प्रकार के मतभेदों के कारण हेमाद्रि एवं मदनपारिजात (पृ० ६००) का कहना है कि लोगों को अपनी शाखा की विधि का पालन करना चाहिए (हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १४०८) । हेमाद्रि ने जोड़ा है कि यदि किसी के गृह्यसूत्र में पिण्डदान के काल का उल्लेख न हो तो उसे उस मत के अनुसार चलना चाहिए जो यह व्यवस्थित करता है कि ब्रह्म-भोज एवं आचमन के उपरान्त पिण्डदान करना चाहिए। श्राद्धप्रकाश (पृ० २४७) ने भी यही मत प्रकाशित किया है। प्रत्येक पिण्ड २५ दर्भो के ऊपर रखा जाता है। अपरार्क (याज्ञ० ११२४) का कथन है कि सभी दशाओं में (बिना किसी अपवाद के) पिण्डों का
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