________________
पायांग कर्मों के विविध रूप
१२६१
मसालेदार पेय भी वैसे ही हों (शंख १४।१३)। हेमाद्रि (श्रा०, पृ० १३७१) ने कहा है कि दाहिने हाथ से परोसना चाहिए, किन्तु बायां हाथ लगा रहना चाहिए; इसके अतिरिक्त केवल हाथ या एक हाथ से कोई भी पदार्थ नहीं परोसना चाहिए, बल्कि लकड़ी के चमचे या किसी पात्र (लोहे के नहीं) से परोसना चाहिए। सभी प्रकार के भोजन एवं सभी अन्य वस्तुएँ, यथा चटनी-अचार, घृत आदि किसी पात्र, चम्मच आदि से परोसना चाहिए (खाली हाथ से नहीं), किन्तु जल या लड्डू आदि नहीं। किसी प्रकार का नमक सीधे अर्थात् खाली हाथ से नहीं परोसना चाहिए (विष्णुध० ७९। १२).। कात्यायन के श्राद्ध-सूत्र में आया है-अग्नौकरण के पश्चात् शेष भोजन को पित्र्य ब्राह्मणों के पात्रों में सभी पात्रों को छूकर परोसना चाहिए और कर्ता को 'पृथिवी पात्र है, आकाश अपिधान (ढक्कन) है, मैं ब्राह्मण के अमृतमुख में अमृत परोस रहा हूँ, स्वाहा' का पाठ करके ऐसा करना चाहिए। इसके उपरान्त पित्र्य ब्राह्मण के दाहिने अंगूठे को कर्ता होम से बचे हुए भोजन में ऋक एवं यज के उन मन्त्रों के साथ जो विष्णु को सम्बोधित है, छुआता है तथा चतुर्दिक (जहाँ भोजन होनेवाला है) वह 'असुर एवं राक्षस मारकर भगा दिये गये हैं' कहकर तिल बिखेरता है और पितरों एवं ब्राह्मणों की अभिरुचि वाला गर्म भोजन परोसता है। देखिए याज्ञ० (१।२३८), बौधा मू० (२।८।१५-१६) एवं कालिकापुराण (हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १०२४) । बौधायनपितृमेधसूत्र (२।९।१९) में आया है कि ब्राह्मण के अँगुठे को इस प्रकार भोजन से छुआना चाहिए कि नाखून वाला भाग भोजन को स्पर्श न करे (हेमाद्रि,श्रा०, पृ० १०२४; श्रा० प्र०, पृ० ११९)। वसिष्ठ का कथन है कि ब्राह्मणों को भोजन करने के अन्त तक बायें हाथ में भोजन-पात्र उठाकर रखना चाहिए। शंख-लिखित (हेमाद्रि, श्रा०,१०१०१९; श्रा०प्र०,१०११८) ने कहा है कि ब्राह्मणों को खाते समय भोजन के गुण एवं दोषों का वर्णन नहीं करना चाहिए, असत्य भाषण नहीं करना चाहिए, एक-दूसरे की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए और न यही कहना चाहिए कि अभी बहुत रखा है (और मत परोसिए), केवल हाथ से संकेत मात्र करना चाहिए। अग्नीकरण के रूप में एवं पात्र में जो कुछ परोसा गया है, मिलाकर खाना चाहिए। हेमाद्रि ने मैत्रायणीय स्त्र एवं स्कन्दपुराण से ऐसी उक्तियां एवं मन्त्र दिये हैं जो कुछ पदार्थों को परोसते समय कहे जाते हैं, यथा ऋ० (४१३९।६); वाज० सं० (२१३२ एवं २३॥३२); तै० सं० (३।२।५।५ एवं १।५।११।४)। आप० ध० सू० (२।८।१८।११) में आया है कि श्राद्ध-भोजन का उच्छिष्टांश आमन्त्रित ब्राह्मणों से हीन लोगों को नहीं देना चाहिए और मनु (३।२४९) का कथन है कि जो व्यक्ति श्राद्ध-भोजन करने के उपरान्त उच्छिष्ट अंश किसी शुद्र को देता है तो वह कालसूत्र नरक में गिरता है।
मत्स्यपुराण (१७१५२-५५; हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १४८२; स्मुतिच०, श्रा०, पृ० ४८२ एवं कल्पतरु०, श्रा०, १०२३०) एवं अन्य ग्रन्थों में आया है कि ब्राह्मणों को आचमन कर लेने एवं जल, पुष्प तथा अक्षत प्राप्त करने के उपरांत कर्ता को आशीर्वचन देने चाहिए। कर्ता प्रार्थना करता है--'हमारे पितर घोर न हों (अर्थात् हमारे प्रति दयालु हों); ब्राह्मण प्रत्युत्तर देते हैं--'तथास्तु (ऐसा ही हो)। कर्ता पुनः कहता है-'हमारा कुल बढ़े, हमारे कूल में दाता बढ़े और भोजन भी'; इन सभी प्रकार की प्रार्थनाओं पर ब्राह्मण उत्तर देते हैं-ऐसा ही हो।' ब्राह्मणों के खा चुकने के उपरान्त पात्रों के उच्छिष्ट अंश हटाने एवं वहाँ सफाई करने के काल के विषय में भी नियम बने हुए हैं। वसिष्ठ० (११।२१-२२) एवं कूर्मपुराण में आया है कि उच्छिष्ट भोजन सूर्यास्त के पूर्व नहीं हटाना चाहिए, क्योंकि उससे अमृत की धारा बहती है जिसे वे मृत व्यक्ति पीते हैं जिनके लिए जलतर्पण नहीं होता। मनु (३।२६५, मत्स्य० १७१५६, पा०, सृष्टि० ९।१८५) ने एक पृथक् नियम दिया है कि उच्छिष्ट भोजन वहीं तब तक पड़ा रहना चाहिए जब तक ब्राह्मण लोग प्रस्थान न कर जायें । हेमाद्रि (श्रा०, पृ० १५१२) ने इस लिए व्यवस्था दी है कि यदि कर्ता के पास दूसरा घर हो तो उच्छिष्ट अंश सूर्यास्त तक पड़ा रहने देना चाहिए, किन्तु यदि एक ही घर हो तो ब्राह्मणों के चले जाने के उपरान्त उसे हटा देना चाहिए (याज्ञ० ११२५७ एवं मत्स्य० १७१५६) । बृहस्पति (स्मृति०, श्रा०, पृ०४८२; हेमाद्रि, श्राद्ध,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org