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________________ मातृपूर्वजों एवं पितृपत्नियों के श्राद्धभाग का विचार १२६३ दान उन पात्रों के पास होना चाहिए, जिनसे ब्राह्मणों को खिलाया जाता है, किन्तु हेमाद्रि का, जो कात्यायन के 'उच्छिष्टसन्निधौ' पर निर्भर है, कथन है कि यदि कर्ता आहिताग्नि है तो उसे अपना पिण्डदान पवित्र अग्नि के पास करना चाहिए, किन्तु यदि कर्ता यज्ञाग्नियाँ नहीं रखता तो उसे उन पात्रों के समक्ष, जिनसे ब्राह्मणों को खिलाया गया था, पिण्डदान करना चाहिए। श्राद्धसार ( पृ० १६३ ) ने अत्रि को उद्धृत कर कहा है कि ब्रह्म-भोज के स्थान से तीन अरत्नियों की दूरी पर पिण्ड देने चाहिए और नवश्राद्धों आदि में पिण्डदान के पूर्व वैश्वदेव का सम्पादन होना चाहिए, किन्तु सांवत्सरिक श्राद्ध, महालय आदि में यह पिण्डदान के उपरान्त करना चाहिए ( पृ० १६४ ) । अमावास्या को किये जानेवाले श्राद्ध में किन-किन पूर्व पुरुषों को पिण्ड देना चाहिए? इस विषय में भी मतैक्य नहीं है। अधिकांश वैदिक ग्रन्थ पार्वण श्राद्ध के देवताओं के रूप में केवल तीन पूर्व पुरुषों की गणना करते हैं । ये तीनों अलग-अलग देवता हैं न कि सम्मिलित रूप में, जैसा कि आस्व ० श्रौतसूत्र ( २।६।१५) एवं विष्णुध ० ( ७३ ॥ १३-१४) का कथन है। एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है— क्या प्राचीन काल में तीनों पितरों की पत्नियाँ, यथा--माता, मातामही एवं प्रमातामही अपने पतियों के साथ सम्मिलित थीं ? क्या पार्वण में माता के पितर भी, यथा-नाना, परनाना एवं बड़े परनाना अपनी पत्नियों के साथ बुलाये जाते थे ? वेदों एवं ब्राह्मणों में इन दोनों प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक हैं। देखिए तै० सं० ( १/८/५/१), तै० ब्रा० (१|३|१० एवं २०६।१६ ), वाज० सं० ( १९।३६-३७ ), श० ब्रा० (२।४।२।१६), जिनमें केवल पितरो एवं तीन पैतृक पूर्व-पुरुषों के ही नाम आये हैं। किन्तु वाज० सं० (९।१९ ) में पैतृक एवं मातृक, दोनों पूर्व पुरुषों का स्पष्ट उल्लेख है ( कात्यायन कृत श्राद्धसूत्र ३ ) । पार्वण में दोनों प्रकार के पूर्व पुरुषों को सम्मिलित रूप में बुलाने के विषय में अधिकांश सूत्र मौन हैं। देखिए आश्व० श्री० (२२६ । १५ ) ; सुदर्शन ( आप० गु० ८।२१।२) का कहना है कि सूत्रकार एवं भाष्यकार ने मातामह श्राद्ध का उल्लेख नहीं किया है, क्योंकि दोहित्र ( पुत्री के पुत्र ) के लिए ऐसा करना आवश्यक नहीं है । कात्यायन (श्राद्धसूत्र, ३) ने पैतृक पितरों के लिए तीन पिण्डों एवं मातृक पितरों के लिए भी तीन पिण्डों के निर्माण की बात कही है। गोभिलस्मृति ( ३।७३) ने व्यवस्था दी है कि अन्वष्टका श्राद्ध प्रथम श्राद्ध ( ग्यारहवें दिन ), १६ श्राद्धों एवं वार्षिक श्राद्ध को छोड़कर अन्य श्राद्धों में छः पिण्डों का दान होना चाहिए। धौम्य ( श्रा० प्र० पृ० १४ स्मृतिच० श्रा०, पृ० ३३७ ) का कथन है कि जहाँ पैतृक पूर्वजों को पूजा जा रहा हो, मातामहों (मातृक पूर्व-पुरुषों) को भी सम्मानित करना चाहिए, किसी प्रकार का अन्तर प्रदर्शित नहीं करना चाहिए, यदि कर्ता विभेद करता है तो वह नरक में जाता है । " विष्णुपुराण, ब्रह्माण्डपुराण एवं वराहपुराण कहते हैं कि कुछ लोगों के मत से मातृक पूर्व पुरुषों का श्राद्ध पृथक् रूप से करना चाहिए, और कुछ लोगों का ऐसा कहना है कि पैतृक एवं मातृक पूर्वपुरुषों के लिए एक ही समय और एक ही श्राद्ध करना चाहिए। बृहस्पति ( कल्पतरु, श्राद्ध, पृ० २०४) का कथन है कि श्राद्ध के लिए बने भोजन पदार्थों से एवं तिल और मधु से अपनी गृह्यसूत्रविधि के नियमों के अनुसार पिण्डों का निर्माण मातृ-पितृपक्षों के पूर्व-पुरुषों के लिए होना चाहिए। वराह० ( १४ | ४०-४१ ) में आया है कि पित्र्य ब्राह्मणों को सर्वप्रथम विदा देनी चाहिए, तब दैव ब्राह्मणों के साथ मात्रिक पितरों को ८९. पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा ध्रुवम् । अविशेषेण कर्तव्यं विशेषान्नरकं व्रजेत् ॥ धौम्य ( श्रा० प्र०, पृ० १४; स्मृतिच०, श्रा०, पृ० ३३७ ) । ९०. पृथक्तयोः केचिदाहुः श्राद्धस्य करणं नृप। एकत्रैकेन पाकेन वदन्त्यन्ये महर्षयः ॥ विष्णुपुराण (३।१५।१७ ) ; पृथग्मातामहानां तु केचिदिच्छन्ति मानवाः । त्रीन् पिण्डानानुपूर्व्येण सांगुष्ठान पुष्टिवर्धनान् ॥ ब्रह्माण्ड ० ( उपोद्घात पाद, ११।६१) । और देखिए वराहपुराण (१४।२२ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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