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विश्वे देवों के विभिन्न नाम एवं मन्त्र
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स्मृतिच० एवं हेमाद्रि के मत से विश्वेदेव ब्राह्मणों को एक आसन दिया जाता है और उनके उपर्युक्त नामों का उच्चारण करके कतिपय श्राद्धों में उनका आवाहन किया जाता है। मिता० (याज्ञ० १।२२९), हेमाद्रि ( श्रा०, पृ० १२२५ ) एवं अन्य निबन्धों के अनुसार पार्वणश्राद्ध में विश्वेदेवों के आवाहन के लिए दो मन्त्र हैं-- 'विश्वे देवास आगत' (ऋ० २।४१।१३) एवं 'आगच्छन्तु महाभागाः, किन्तु स्मृतिच० ( पृ० ४४४ ) ने 'विश्वे देवाः शृणुत' (ऋ० ६।५२/१३ ) यह एक मन्त्र और जोड़ दिया है।
सामान्य नियम यह है कि विश्वेदेव ब्राह्मण पूर्वाभिमुख एवं पित्र्य ब्राह्मण दक्षिणाभिमुख बैठते हैं (याज्ञ० १।१२८ एवं वराह० १४।११) किन्तु हेमाद्रि ( श्रा०, पृ० १२०० ) के मत से बैठने की दिशाओं के विषय में कम-से-कम पांच मत उपस्थित किये गये हैं। यह ज्ञातव्य है कि श्राद्ध विधि के सभी विषयों में विश्वेदेविक ब्राह्मणों को प्राथमिकता मिलती है, केवल भोजन से लगे हाथ धोने एवं श्राद्ध के अन्त में ब्राह्मणों से अन्तिम विदा लेने के विषयों में प्राथमिकता नहीं मिलती। दक्षिण एव पश्चिम भारत में श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मण पूजित होते हैं, किन्तु बंगाल में दर्भों की आकृति पूजी जाती है । यही बात रघुनन्दन के श्राद्धतत्त्व में भी आयी है ( पुरूरवसाद्रवसोविश्वेषां देवानां पार्वणश्राद्धं कुशमयब्राह्मणे करिष्ये इति पृच्छेत् ) ।
वायु० (७४।१५-१८) ने लिखा है कि श्राद्ध के आरम्भ एवं अन्त में एवं पिण्डदान के समय निम्न मन्त्र तीन बार कहे जाने चाहिए, जिनके कहने से पितर लोग श्राद्ध में शीघ्रता से आते हैं और राक्षस भाग जाते हैं तथा यह मन्त्र तीनों लोकों में पितरों की रक्षा करता है--'देवों, पितरों, महायोगियों, स्वधा एवं स्वाहा को नित्य नमस्कार । स्मृतिच० ( श्रा०, पृ० ४४१ ) के मत से ब्राह्मणों के आ जाने एवं बैठ जाने के पश्चात् एवं ब्राह्मणों के आसनों पर कुश रख देने के
'विश्वे देवाः' को अलग-अलग रखना चाहिए, सामासिक रूप में नहीं। 'इष्टिश्राद्धे ऋतुर्दक्षः सत्यो नान्दीमुखे वसुः । नैमित्तिके काकामी काम्ये च धुरिलोचनौ । पुरूरवा आर्द्रवश्च पार्वणे समुदाहृतौ ।' बृहस्पति (अपरार्क, पृ० ४७८; श्र० प्र०, पृ० २३; मद० पा०, पृ० ५७३-५७४ ) ने व्याख्या की है-' इष्टिश्राद्ध माधानादौ क्रियमाणम् । नैमित्तिके सपिण्डीकरणे । कामनयानुष्ठेयगयामहालयाविश्राद्धं काम्यम् ।' इष्टिश्राद्ध १२ श्राद्धों में ९व श्राद्ध है (विश्वामित्र, कल्पतरु, पृ० ६; स्मृतिच०, श्रा०, पृ० ३३४) । श्रा० प्र० (१०२३) ने 'पुरूरवस्' एवं 'आर्द्रव' ऐसे नामों के विभिन्न पाठ दिये हैं, यथा 'पुरूरव' एवं 'माद्रव' । श्राद्धतत्त्व ( पृ० १९९ ) एवं टोडरानन्द ( श्राद्ध सौख्य) ने 'मानव' नाम दिया है। श्राद्ध तत्त्व ने 'इष्टिश्राद्ध' को 'इच्छाश्राद्ध' एवं 'नैमित्तिक' को 'एकोद्दिष्ट' कहा है, श्राद्धक्रियाकौमुदी (१०५६) ने 'पुरोरवाः' एवं 'माद्रवाः' पाठ रखे हैं। ब्रह्माण्ड० ( ३।३।३०-३१) ने 'विश्वेदेवों के दस नाम विभिन्न रूपों से दिये हैं-- 'पुरूरवो माद्रवसो रोचमानश्च' । ब्रह्माण्ड ० (३।१२।३) ने कहा है कि वक्ष की एक कन्या विश्वा से १० पुत्र उत्पन्न हुए। जब हिमालय के शिखर पर उन्होंने कठिन तप किया तो ब्रह्मा ने उन्हें इच्छित वर दिया और पितरों ने स्वीकृति दी । पितरों ने कहा- 'अग्रे दत्त्वा तु युष्माकमस्माकं दास्यते ततः । विसर्जनमथास्माकं पूर्वं पश्चातु वैवतम् ।।' यह गाथा सम्भवतः श्राद्ध में वैश्वदेव ब्राह्मणों के प्रयोग को सिद्ध करने का प्रयास है। विष्णुधर्मोत्तरपु० ( ३।१७६।१-५) ने विश्वेदेवों के नाम कुछ भिन्न रूप में दिये हैं।
८७. ये उक्तियाँ (श्लोक) स्कन्द० (७।१।२०६।११४- ११६), ब्रह्माण्ड० (३।११।१७-१८), विष्णुधर्मोत्तर० (१।१४०।६८-७२, कुछ अन्तरों के साथ) में पायी जाती हैं। मन्त्र गरुड़ ० ( आचारखण्ड, २।८।६), कल्पतरु ( भा० १४४) में पाया जाता है। अधिकांश पुराणों में मन्त्र का अन्त 'नित्यमेव नमोनमः' से होता है। हेमाद्रि (धा०, पृ० १०७९ एवं १२०८ ) ने इसे 'सप्ताचिः' संज्ञा दी है और कहा है कि यह सात पुराणों में आया है।
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