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________________ १२५८ धर्मशास्त्र का इतिहास पूर्व ही यह मन्त्र कहा जाता है। यह मन्त्र ब्रह्म० (२२०/१४३), ब्रह्माण्ड० ( उपोद्घातपाद ११।२२ ) एवं विष्णुधर्मोतर० ( १।१४०।६८-७० ) में आया है और अन्तिम दो ने इसका 'सप्ताचिः' नाम रखा है और यह अश्वमेष के बराबर कहा गया है । पितरों को आसन देने, आसन पर कुश रखने एवं अर्ध्य देने के लिए शब्दों के क्रम के विषय में बृहस्पति, कुछ पुराणों एवं निबन्धों ने कुछ नियम दिये हैं। यहाँ भी ऐकमत्य नहीं है। बृहस्पति का कथन है--' आसन देने, अर्घ्य देने या पिण्डदान करने एवं पिण्डों पर जल देने के समय कर्ता को प्रत्येक पूर्व- पुरुष से अपना सम्बन्ध, पितरों के नाम एवं गो तथा उनके ध्यान का (वसु, रुद्र एवं आदित्य शब्दों के साथ) उद्घोष करना पड़ता है।' कहा गया है कि कर्ता को श्राद्ध में छः बार आचमन करना चाहिए, यथा-श्राद्ध आरम्भ होने के समय, आमन्त्रित ब्राह्मणों के पाद प्रक्षालन के समय, उनकी पूजा के समय, विकिर बनाते समय, पिण्डदान करते समय एवं श्राद्ध के अन्त में। मध्यकाल के लेखकों के मन में उठनेवाले प्रश्नों में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि श्राद्ध में दी गयी आहूतियों के प्राप्तिकर्ता वास्तविक रूप में कौन हैं, ब्राह्मण या पितर ? महार्णवप्रकाश, हरिहर आदि ने आश्व० गृ० (४१८११ ) के 'एतस्मिन् काले ... दानम्' एवं वराह० ( १३/५१ ) जैसे पुराणों में व्यवहृत 'विभवे सति विप्रेभ्यो ह्यस्मानुद्दिश्य दास्यति' शब्दों पर निर्भर रहकर उद्घोषित किया है कि ब्राह्मण ही प्राप्तिकर्ता हैं । किन्तु श्रीदत्त आदि ने 'अक्षन्न पितरः अमीमदन्त पितरः' (वाज० सं० १९/३६) जैसे श्रुति वचनों एवं 'पितरेतत् ते अर्घ्यम्' या 'एतद्वः पितरो वासः' जैसे मत्रों के आधार पर उद्घोषित किया है कि वास्तविक प्राप्तिकर्ता पितर लोग हैं; किन्तु, क्योंकि पितर लोग दूसरे लोक में चले गये रहते हैं और शरीर रूप से चन्दन, पुष्प, वस्त्र आदि के दान को नहीं ग्रहण कर सकते, अतः ये वस्तुएँ ब्राह्मणों को दी जाती हैं, जो उस क्षण पितरों के रूप में माने जाते हैं। इस विषय में विवेचन के लिए देखिए स्मृतिच० ( श्रा०, पृ० ४४७-४४९) एवं श्रा० प्र० ( पृ० ३०-३१) । यह ज्ञातव्य है कि ब्राह्मणों को दिया गया जल एवं दक्षिणा केवल ब्राह्मणों के लिए थे, जिनमें जल शुद्धि के लिए एवं दक्षिणा अक्षय कल्याण के लिए है । ( पितरों के आवाहन के लिए प्रयुक्त मन्त्रों एवं उनके पाठ-काल के विषय में भी कई मत-मतान्तर हैं । हेमाद्रि ( आ०, पृ० १२५४-५६) ने मन्त्र-पाठ के विषय में पाँच मत दिये हैं, जिनमें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तीन मत ये हैं- 'पित्र्य ब्राह्मणों के आसनों की बायीं ओर आसन के रूप में दर्भ रखे जाने के पूर्व ही आवाहन होना चाहिए या दर्भ रखे जाने के पश्चात् या अग्नौकरण के उपरान्त ।' मन्त्र के विषय में याज्ञ० ११२३२-२३३), ब्रह्माण्ड० आदि का कथन है कि आवाहन मन्त्र -- ' उशन्तस्त्वा' (ऋ० १०।१६।१२ वाज० सं० १९।७० एवं तं० सं० २।६।१२।१) है और इसके उपरान्त कर्ता को 'आ यन्तु न:' (वाज० सं० १९।५८) मन्त्र का पाठ करना चाहिए। विष्णुध० सू० (७३।१०-१२) का कथन है- 'ब्राह्मण से अनुमति प्राप्त करने के उपरान्त कर्ता को पितरों का आवाहन करना चाहिए। तिल विकीर्णं करके यातुधानों को भगाने एवं दो मन्त्रों के पाठ के उपरान्त पितरों को चार मन्त्रों के साथ बुलाना चाहिए - हे पितर, यहाँ पास में आइए', 'हे अग्नि, उन्हें यहाँ ले आइए', 'मेरे पितर (पूर्वपुरुष ) यहाँ आयें', 'हे पितर, यह आप का भाग है।' हेमाद्रि ( श्रा०, पृ० १२६०।१२६७) ने विभिन्न लेखकों द्वारा उपस्थापित मन्त्रों का उल्लेख किया है। याज्ञ० (१।२३६-२३७) द्वारा वर्णित अग्नौकरण के विषय में भी बहुत-सी विवेचनाएँ हुई हैं। मिताक्षरा ने संकेत किया है कि यदि कोई व्यक्ति सर्वाधान विधि से श्रोताग्नियाँ रखता है तो पार्वण श्राद्ध में, जिसे वह पिण्डपितृयज्ञ के उपरान्त करता है, वह दक्षिणाग्नि में होम करता है. क्योंकि उसके पास औपासन (गृह्य ) अग्नि नहीं होती । मिता ने इस मत के समर्थन के लिए विष्णुधर्मोत्तरपुराण (१।१४०।१८) का उल्लेख किया है। किन्तु यदि कोई व्यक्ति अधान विधि से श्रौताग्निस्थापन करता है तो उसे औपासन अग्नि में पार्वण होम करना चाहिए। यदि कोई Jain Education International ' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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