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________________ १२५६ धर्मशास्त्र का इतिहास दूसरी शाखा या सूत्र के विषय बिना किसी भेद के लिये जाये तो ठीक है, किन्तु यदि विभेद पड़ जाय तो अपनी शाखा के सूत्र का ही अवलम्बन करना चाहिए। यदि कोई बात दूसरी शाखा के सूत्र में पायी जाय और अपनी शाखा में न हो तो उसे विकल्प से ग्रहण किया जा सकता है। 'सर्वशाखाप्रत्यय न्याय' के आधार पर मध्यकालिक निबन्धों ने स्मृतियों एवं पुराणों से लेकर श्राद्धों के विषय में बहुत-सी ऐसी बातें सम्मिलित कर ली हैं जो आरम्भिक रूप में अति विस्तृत नहीं थीं। कूर्म (उत्तरार्ष, २२।२०-२१) में आया है कि मध्याह्न समाप्त होने के पूर्व ही आमन्त्रित ब्राह्मणों को घर पर बुलाना चाहिए। ब्राह्मणों को बाल कटवाने, नख कटवाने के उपरान्त उस समय आना चाहिए। कर्ता को दाँत स्वच्छ करने के लिए सामान देना चाहिए, उन्हें अलग-अलग आसनों पर बैठाना चाहिए और स्नान के लिए तेल एव जल देना चाहिए। यह ज्ञातव्य होना चाहिए कि ये बातें आश्व० गृ०, मनु (३।२०८), याज्ञ० (११२२६) एवं कुछ अन्य पुराणों में भी नहीं पायी जातीं। उदाहरणार्थ, वराह० (१४१८) ने स्वागत करने के उपरान्त अपराल में ब्राह्मणों को आसन देने की विधि बतलायी है। इसी प्रकार के बहत-से उदाहरण दिये जा सकते हैं, किन्तु स्थानाभाव से ऐसा न किया जायगा। मध्य काल के निबन्धों में एवं आजकल पायी जानेवाली पार्वणश्राद्ध-विधि के वर्णन के पूर्व हम कुछ विषयों का विवेचन करेंगे, जिनके विषय में मत-मतान्तर हैं और जो सामान्य रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। __ अपराल में जब आमन्त्रित ब्राह्मण आ जाते हैं तो उन्हें सम्मान देने के लिए कर्ता के घर के सामने दो मण्डल बनाये जाते हैं, ऐसा कुछ पुराणों में आया है। उदाहरणार्थ नारदपुराण में आया है-'ब्राह्मण कर्ता के लिए मण्डल का आकार वर्गाकार होना चाहिए, क्षत्रिय के लिए त्रिभुजाकार, वैश्य के लिए वृत्ताकार और शूद्रों के लिए पृथिवी पर केवल जल छिड़क देना पर्याप्त है। गोबर और जलमिश्रित गोमूत्र से पृथिवी को पवित्र करके मण्डल का निर्माण करना चाहिए। दो मण्डलों में एक उत्तर दिशा में ढालू भूमि पर होना चाहिए और दूसरा दक्षिण दिशा में दक्षिण की ओर। उत्तरी मण्डल पर पूर्व की ओर नोक करके कुशों को अक्षतों के साथ रखना चाहिए और दक्षिणी मण्डल गर तिलों के साथ दुहराये हुए कुश रखने चाहिए। उत्तरी मण्डल सामान्यत: दोनों ओर दो हाथों की लम्बाई का और दक्षिणी मण्डल दोनों ओर चार हाथों की लम्बाई का होना चाहिए। कर्ता द्वारा दाहिना घुटना मोड़कर विश्वेदेवों के प्रतिस्वरूप ब्राह्मणों का सत्कार उत्तरी मण्डल पर जल से उनके पैर धोकर करना चाहिए और पितरों के प्रतिनिधि ब्राह्मणों का सम्मान बायाँ घुटना मोड़कर उनके पैर (पाद्य) धोकर किया जाना चाहिए। पाद्य अर्पण (पाद-प्रक्षालन) के समय का मन्त्र है'शन्नो देवी' (ऋ० १०।९।४) । मन्त्र पाठ के उपरान्त उसे विश्वेदेव ब्राह्मणों एवं पित्र्य ब्राह्मणों को जल देना चाहिए। पाद्य जल के उपरान्त ब्राह्मण मण्डलों के सामने आते हैं और आचमन करते हैं। प्राचीन सूत्र एवं मनु तथा याज्ञवल्क्य (११२२९) आदि स्मृतियाँ सामान्यतः कहती हैं कि विश्वेदेवों का आवाहन करना चाहिए, किन्तु प्रजापति (श्लोक १७९-१८०) जैसी पश्चात्कालीन स्मृतियाँ एवं पुराण विश्वेदेवों के दस नामों वाले श्लोक उद्धृत करते हैं और उन्हें दो-दो की पांच कोटियों में बाँटकर श्राद्धों की पाँच कोटियों के लिए उनको निर्धारित करते हैं। उनमें आया है-'किसी इष्टि में सम्पादित श्राद्ध के विश्वेदेव हैं ऋतु एवं दक्ष, नान्दीमुख श्राद्ध में हैं सत्य एवं वसु, काम्य श्राद्ध में धुरि एवं लोचन, नैमित्तिक श्राद्ध में काल एवं काम तथा पार्वण श्राद्ध में पुरूरवस एवं आव।' ८६. ऋतुर्दक्षो वसुः सत्यः कालः कामस्तथैव च । धुरिश्चारोचनश्चैव तथा चैव पुरूरवाः॥ आवश्च वर्शते तु विश्वे देवाः प्रकीर्तिताः। बृहस्पति (अपरार्क, पृ० ४७८; कल्पतर, भा०, पृ० १४२; स्मृतिच०, श्रा०, पृ०, ४४२-४४३); Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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