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________________ एक शाखानुयायी के लिए अन्य शाखा की विधि मान्य है या नहीं ? १२५५ हटाया नहीं जाता और न वहाँ सफाई आदि की जाती। इसके उपरान्त वह वैश्वदेव, बलिहोम आदि आह्निक कृत्य करता है । त्यक्त भोजन (ब्राह्मणों द्वारा पृथिवी पर छोड़ गये खाद्य-पदार्थ) उन दासों का भाग होता है, जो अच्छे एवं आज्ञाकारी होते हैं । कर्ता एक जलपूर्ण पात्र को ले जाकर 'वाजे वाजे' (ऋ० ७०३८।८, वाज० सं० ९११८, तै० स० १७/८/२ ) के साथ कुशों की नोकों से ब्राह्मणों को स्पर्श करता हुआ उन्हें जाने को कहता है । अपने घर से बाहर आठ पगों तक उसे उनका अनुसरण करना चाहिए और उनकी प्रदक्षिणा करके अपने सम्बन्धियों, पुत्रों, पत्नी के साथ लौट आना चाहिए और तब आह्निक वैश्वदेव एवं बलिहोम करना चाहिए। इसके उपरान्त उसे अपने सम्बन्धियों, पुत्रों, अतिथियों एवं नौकरों के साथ ब्राह्मणों द्वारा खाये जाने के उपरान्त भोजन - पात्र में बचा हुआ भोजन पाना चाहिए। हमने यह देख लिया कि पद्मपुराण की बातें ( मन्त्रों के साथ) याज्ञवल्क्यस्मृति से बहुत मिलती हैं। किसी भी पुराण की विधि उसके लेखक की शाखा एवं उसके द्वारा अधीत सूत्र पर निर्भर है। कतिपय गृह्यसूत्रों, स्मृतियों एवं पुराणों में पाये गये मत-मतान्तरों को देखकर यह प्रश्न उठता है कि क्या कर्ता अपने वेद या शाखा के गृह्यसूत्र के अनुसार श्राद्ध करे या अन्य सूत्रों एवं स्मृतियों में दिये हुए कतिपय विषयों के (जो उसकी शाखा के सूत्र या कल्प में नहीं हैं ) उपसंहार को लेकर श्राद्ध करे । हेमाद्रि (श्रा०, पृ० ७४८-७५९ ) ने विस्तार के साथ एवं मेधातिथि ( मनु २।२९ एवं ११।२१६), मिता० ( याज्ञ० ३।३२५), अपरार्क ( पृ० १०५३) आदि ने संक्षेप में इस प्रश्न पर विचार किया है। जो लोग अपने सूत्र में दिये गये नियमों के प्रतिपालन में आग्रह प्रदर्शित करते हैं, वे ऐसा कहते हैं- 'यदि अपने सूत्र के नियमों के अतिरिक्त अन्य नियमों का भी प्रयोग होगा तो क्रमों एवं कालों में विरोध उत्पन्न हो जायगा । इतना ही नहीं, वैसा करने से कुल परम्परा भी टूट जायगी । देखिए विष्णुधर्मोत्तर ० (२।१२७ । १४८ - १४९) ५ । स्मृतियों में जो अतिरिक्त बातें दी हुई हैं, वे उनके लिए हैं जिनके अपने कल्प या गृह्यसूत्र नहीं होते, या वे शूद्रों के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं कि एक ही कृत्य के विषय में कहे गये गृह्यसूत्रों एवं स्मृतियों के वचनों को यथासम्भव प्रयोग में लाना चाहिए, वे जैमिनि० (२।४।८-३३) पर निर्भर हैं, जो शाखान्तराधिकरण न्याय या सर्वशास्त्राप्रत्यय न्याय कहलाता है । इस सूत्र में यह प्रतिपादित है कि विभिन्न सूत्रों एवं स्मृतियों में किसी कृत्य के प्रयोजन एवं फल एक ही हैं। उदाहरणार्थ, द्रव्य एवं देवता समान ही हैं (पार्वण श्राद्ध में पितर लोग ही देवता हैं और सभी ग्रन्थों में कुश, तिल, जल, पात्र, भोजन आदि द्रव्य एक-से ही हैं) विधि एक-सी है और नाम (पार्वण श्राद्ध, एकोद्दिष्ट श्राद्ध आदि) भी समान ही हैं । अतः स्पष्ट है कि इन समान लक्षणों के कारण सभी सूत्र एक ही बात कहते हैं, किन्तु जो अन्तर पाया जाता है, वह विस्तार मात्र । ऐसा नहीं कहा जा सकता कि स्मृतियाँ केवल उन्हीं लोगों के लिए उपयोगी हैं, जिनके अपने सूत्र नहीं होते। अपनी कुल परम्परा या जाति-परम्परा से तीनों वर्णों के लोग किसी-न-किसी सूत्र से अवश्य सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार ऐसा नहीं कहा जा सकता कि स्मृतियाँ केवल शूद्रों के लिए हैं, क्योंकि स्मृतियाँ मुख्यतः उपनयन, वेदाअग्निहोत्र एवं ऐसी ही अन्य बातों का विवेचन करती हैं, जिनसे शूद्रों का कोई सम्पर्क नहीं है । इसी प्रकार उस विषय में भी, जो यह कहा गया है कि अन्य सूत्रों एवं स्मृतियों की बातों को लेने से कृत्य के क्रम एवं काल में भेद उत्पन्न हो जायगा, . जैमिनि० ( १।३।५-७ ) ने उत्तर दिया है ( इस पर विस्तार के साथ इस ग्रन्थ के खण्ड ३, अध्याय ३२ में विचार हो चुका है) । निष्कर्ष यह निकाला गया है कि जब मतभेद न हो, अर्थात् अपनी शाखा या सूत्र के कृत्य करने में ध्ययन, ८५. यः स्वसूत्रमतिक्रम्य परसूत्रेण वर्तते । अप्रमाणमृषिं कृत्वा सोप्यधर्मेण युज्यते ॥ विष्णुधर्मोत्तरपुराण (२।१२७११४८-१४९ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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