SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२५४ धर्मशास्त्र का इतिहास कतिपय प्रशस्तियों और विष्णु, सूर्य, रुद्र की प्रशस्तियों, इन्द्र को संबोधित मन्त्र, रुद्र एवं सोम वाले मन्त्र तथा पावमानी मन्त्र, बृहत्, रथन्तर एवं ज्येष्ठ साम, शान्तिकल्प के अध्याय (दुष्टात्माओं को दूर करने वाले कृत्य या लक्षण बताने वाले अंश), मधुब्राह्मण, मण्डलब्राह्मण तथा उन सभी का पाठ, जिनसे ब्राह्मणों एवं कर्ता को आनन्द मिलता है, करना चाहिए। महाभारत का भी पाठ होना चाहिए, क्योंकि पितरों को वह बहुत प्रिय है। ब्राह्मणों के भोजनोपरान्त कर्ता को सभी प्रकार के खाद्य-पदार्थों से कुछ-कुछ भाग एक पिण्ड के रूप में ले लेना चाहिए और उसे भोजन करने वाले ब्राह्मणों के समक्ष रखे पात्रों के आगे (पृथिवी पर दर्भो के ऊपर) रख देना चाहिए और यह कहना चाहिए-'पृथिवी पर रखे हुए भोजन से हमारे कुल के वे लोग, जो जलाये गये थे या नहीं जलाये गये थे, सन्तोष प्राप्त करें और सन्तुष्टि प्राप्त करने के उपरान्त वे उच्च लोकों (या कल्याण ) की प्राप्ति करें। यह भोजन, जो उन लोगों की सन्तुष्टि के लिए अर्पित है, जिनके न पिता हैं, न माता हैं, न सम्बन्धी हैं, न कोई मित्र है और जिन्हें (श्राद्ध में किसी के द्वारा अर्पित) भोजन नहीं प्राप्त है, उनके साथ मिले और जाय, जहाँ इसे जाने की आवश्यकता पड़े।' श्राद्ध में पके हुए भोजन का शेषांश एवं पृथिवी पर रखा हुआ भोजन उन लोगों का भाग है, जो चौल, उपनयन आदि संस्कार के बिना ही मृत हो चुके हैं, जिन्होंने अपने गुरुओं का त्याग कर दिया था, यह उन कुल की स्त्रियों के लिए भी है जो अविवाहित थीं। यह देखकर कि सभी ब्राह्मण सन्तुष्ट हो चुके हैं, कर्ता को प्रत्येक ब्राह्मण के हाथ में जल देना चाहिए, गोबर एवं गोमूत्र से लेपित भूमि पर उनकी नोक दक्षिण ओर करके रखना चाहिए और उन पर पिण्डपितृयज्ञ की विधि से सभी प्रकार के भोजनों (श्राद्ध में पकाये गये) से बनाये गये पिण्डों को जल से सिंचित कर रखना चाहिए। उसे पिण्ड दिये जानेवाले पितरों का नाम एवं गोत्र बोल लेना चाहिए और पुष्प,दीप, गंध, चन्दन आदि अर्पण करके पिण्डों पर पुनः जल चढ़ाना चाहिए। उसे दर्भ हाथ में लेकर पिण्डों की तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए और उन्हें दीपों एवं पुष्पों का अर्पण करना चाहिए। भोजनोपरान्त जब ब्राह्मण आचमन करें तो उसे भी आचमन करना चाहिए और एक बार पुनः ब्राह्मणों को जल, पुष्प एवं अक्षत देने चाहिए, तब तिल युक्त अक्षय्योदक देना चाहिए। इसके उपरान्त उसे अपनी शक्ति के अनुसार गौएँ, भूमि, सोना, परिधान, भव्य शयन एवं ब्राह्मणों के इच्छित पदार्थ या अपनी या पिता की पसन्द की वस्तुएँ देनी चाहिए।"दान देने में उसे (कर्ता को) कृपणता नहीं प्रदर्शित करनी चाहिए। इसके उपरान्त वह ब्राह्मणों से स्वधा कहने की प्रार्थना करता है और उन्हें वैसा करना चाहिए । तब उसे ब्राह्मणों से निम्न आशीर्वाद मांगना चाहिए और पूर्वाभिमुख हो आशीर्वचन सुनने चाहिए-'पितर हमारे लिए कृपालु हो', ब्राह्मण कहेंगे-'ऐसा ही हो'; 'हमारे कुल की वृद्धि हो, वे कहेंगे-'ऐसा कुल के दाता समृद्धि को प्राप्त हों और वेदों एवं सन्तति की वृद्धि हो तथा ये आशीर्वचन सत्य रूप में प्रतिफलित हो', ब्राह्मण कहेंगे--'ऐसा ही हो।' इसके उपरान्त कर्ता पिण्डों को हटाता है, और ब्राह्मणों से 'स्वस्ति' कहने की प्रार्थना करता है और वे वैसा करते हैं। जब तक ब्राह्मण विदा नहीं हो जाते तब तक उनके द्वारा छोड़ा गया भोजन ८४. पन० (सृष्टि०,९।१८०) में आया है-गोभूहिरण्यवासांसि भव्यानि शयनानि च । दद्याधाविष्टं विप्राणामात्मनः पितुरेव च ॥ श्राद्ध में भूमिदान के विषय में कई एक अभिलेख एवं लिखित प्रमाण हैं। प्रयाग में किये गये (गांगेयदेव के)सांवत्सरिक श्राख के अवसर पर एक ब्राह्मण को दिये गये 'सुसि' नामक ग्राम के दान की चर्चा गांगेयदेव के पुत्र कर्णदेव के अभिलेख (उत्कीर्ण लेख) में हुई है (सन् १०४२ ई.)। और देखिए इण्डियन एण्टीक्वेरी (जिल्ब १६, १० २०४-२०७ एवं जिल्द २९, भाग १ एवं २, सन् १९४८,१०४१) । आश्रमवासिकपर्व (१४॥३-४) में आया है कि युधिष्ठिर ने भीष्म, द्रोण, दुर्योधन आदि के बाद में ब्राह्मणों को सोना, रत्नों, दासों, कम्बलों, ग्रामों, भूमियों, हाथियों, घोड़ों (उनके आसनों एवं जीनों के साथ) एवं कन्याओं के दान किये थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy