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पुराणों में पार्वण श्राद्ध का विधान
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( सृष्टिखण्ड, ९।१४०-१८६), ब्रह्माण्ड ० ( उपोद्घातपाद, प्र० १२ ), स्कन्द० ( ६ । २२४१३ - ५१ ), विष्णुधर्मोत्तर ० ( १।१४०1६-४४) । अग्नि० ( १६३।२-४२) में दो-एक बातों को छोड़कर याज्ञ० ( १।२२७ - २७० ) की सभी बातें यथावत् पायी जाती हैं; इसी प्रकार इस पुराण के अध्याय ११७ में बहुत-से श्लोक आश्व० गृ० एवं याज्ञ० के समान हैं । यही बात बहुत से अन्य पुराणों के साथ भी पायी जाती है। इसी प्रकार गरुड़पुराण में बहुत-से श्लोक याज्ञवल्क्यस्मृति के समान हैं; उदाहरणार्थ, मिलाइए याज्ञ० १।२२९-२३९ एवं गरुड० १।९९।११-१९ । पुराणों की बातें गृह्यसूत्रों, मन एवं याज्ञ० से बहुत मिलती हैं, उनके मन्त्र एवं सूत्र समान ही हैं, कहीं-कहीं कुछ बातें जोड़ दी गयी हैं। वराहपुराण (१४।५१) में आया है कि सभी पुराणों में श्राद्ध विधि एक सी है ( इयं सर्वपुराणेषु सामान्या पैतृकी क्रिया) । पद्म० ( सृष्टि०, ९।१४०-१८६) का निष्कर्ष यहाँ दिया जा रहा है--कर्ता विश्वेदेवों को (आमंत्रित ब्राह्मण या ब्राह्मणों को, जो विश्वेदेवों का प्रतिनिधित्व करते हैं) जौ एवं पुष्पों के साथ दो आसन देकर सम्मानित करने के उपरान्त दो पात्र जल से भरता है और उन्हें दर्भों के पवित्र पर रखता है। जलार्पण ऋ० (१०।९।४) के 'शन्नो देवी० ' मन्त्र के साथ एवं जौ का अर्पण 'यवोसि ०' के साथ होता है। उन्हें 'विश्वेदेवाः' (ऋ० २।४१।१३ ) के साथ बुलाया जाता है और यवों को 'विश्वे देवासः' (ऋ० २।४१।१३-१४) मन्त्रों से बिखेरा जाता है । उसे इन मन्त्रों के साथ यवों को बिखेरना चाहिए- 'तुम यव हो, अन्नों के राजा हो आदि ।' ब्राह्मणों को चन्दन एवं फूलों से पूजित करने के उपरान्त उन्हें 'या दिव्या' • मन्त्र से सम्मानित करना चाहिए। अर्घ्य से वैश्वदेव ब्राह्मणों को सम्मानित करने के पश्चात् उसे (कर्ता को ) पितृयज्ञ आरम्भ करना चाहिए। उसे दर्भों का आसन बनाना चाहिए, तीन पात्रों की पूजा करनी चाहिए, उन पर पवित्र रखकर 'शन्नो देवी०' (ऋ० १०१९१४ ) के साथ जल भरना चाहिए और उनमें तिल डालने चाहिए और तब उनमें चन्दन एवं पुष्प डालने चाहिए ( श्लोक १४७ १५२ में पात्रों का वर्णन है, जो प्रयोग में लाये जाते हैं) । इसके उपरान्त उसे पूर्व पुरुषों के नाम एवं गोत्र का उद्घोष करके ब्राह्मणों के हाथ में दर्भ देना चाहिए । तब वह ब्राह्मणों से प्रार्थना करता है - 'मैं पितरों का आवाहन करूँगा ।' जब ब्राह्मण उत्तर देते हैं- 'ऐसा ही हो', तब वह ऋ० (१०।१६। १२) एवं वाज० सं० (१९५८) के उच्चारण के साथ पितरों का आवाहन करता है। इसके पश्चात् पितृ ब्राह्मणों को अर्घ्य 'या दिव्या' ० के साथ देकर, चन्दन, पुष्प आदि ( अन्त में वस्त्र ) से सम्मानित कर उसे अर्घ्यपात्रों के शेष जल को पिता वाले पात्र में एकत्र करना चाहिए और उसे उत्तर दिशा में अलग उलटकर रख देना चाहिए एवं 'तुम पितरों के आसन हो' ऐसा कहना चाहिए। तब दोनों हाथों द्वारा उन पात्रों को, जिनमें भोजन बना था, लाकर विभिन्न प्रकार के भोजनों को परोसना चाहिए ( श्लोक १५७-१६५ में विभिन्न प्रकार के भोजनों एवं उनके द्वारा पितरों की सन्तुष्टि के कालों का वर्णन है ) । जब ब्राह्मण खाते रहते हैं, उस समय उसे पितृ-संबन्धी वैदिक मन्त्रों," पुराणोक्त ब्रह्मा की
८३. किन मन्त्रों का पाठ होना चाहिए, इस विषय में पद्म० (सृष्टि० ९।१६५-१६९ ) के श्लोक अपरार्क ( १० ५०२ ) ने उद्धृत किये हैं। पहला श्लोक 'स्वाध्याय आदि' मनु ( ३१२३२) का है। मिलाइए नारदपुराण (पूर्वार्ध, २८/६५-६८) जिसमें अन्यों के साथ रक्षोघ्न, वैष्णव एवं पैतृक (ऋ० १०।१५।१-१३) मन्त्रों, पुरुषसूक्त, त्रिम एवं त्रिसुपर्ण का भी उल्लेख है। हेमाद्रि (श्रा०, पृ० १०७५ ) के मत से शान्तिक अध्याय वाज० सं० (३६ १० ) है, जो 'शं नो वातः पवताम्' से आरम्भ होता है। मधुब्राह्मण वही है जिसे बृह० उ० (२२५, 'इयं पृथिवी सर्वेषां भूतानां मधु' से आरम्भ होनेवाले ) एवं छान्दोग्य० (३|१, 'असौ वा आवित्यो देवमधु' से आरम्भ होनेवाले) में मघुविद्या कहा गया है । मण्डलब्राह्मण एक उपनिषद् है । पद्मपुराण के पाठ वाले श्लोकों में दी गयी बातें मत्स्य ० ( १७७३७-३९) में भी हैं। हेमाद्रि एवं श्र० प्र० का कथन है कि यदि व्यक्ति को अधिक नहीं ज्ञात है तो उसे गायत्री मन्त्र का पाठ करना चाहिए ।
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