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________________ पाप की भावना का विस्तार १०१९ है। कौषीतकि-ब्राह्मणोपनिषद् (३।९) में ऐसा आया है-"सबके स्वामी अर्थात् ईश्वर उसको, जो अच्छा (साधु) कर्म करता है, अच्छे लोकों की ओर उठाने की इच्छा रखते हैं और जिसे वे नीचे खींच लाना चाहते हैं उससे दृष्ट असाध कर्म कराते हैं। इससे प्रकट होता है कि ईश्वर कुछ लोगों को बचाने के लिए और कुछ लोगों को गिराने के लिए चुन लेता है। यह वाक्य कैल्विनवादी पूर्व-निश्चितता के सिद्धान्त की ध्वनि प्रकट करता है। भगवद्गीता (३१३६) में अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा है--"किससे प्रेरित होकर व्यक्ति न चाहते हुए भी अनायास पाप-कृत्य कर जाता है?" दिया हुआ उत्तर यह है (३।३७)---"रजोगुण से उत्पन्न विषयेच्छा एवं क्रोध मनुष्य के शत्रु हैं।" एक स्थान (१६।२१) पर भगवद्गीता में आया है---"नरक में प्रवेश के लिए तीन द्वार हैं, इनसे अपना नाश हो जाता है (और ये हैं) काम, क्रोध एवं लोभ, अतः मनुष्य इन तीनों को छोड़ दे।" किन्तु इस कथन से समस्या का समाधान नहीं होता। प्रश्न तो यह है--मनुष्य के मन में काम, क्रोध एवं लोभ का उदय ही क्यों होता है ? सांख्य दर्शन के मत से इस प्रश्न का उत्तर यह है--"गण तीन हैं; सत्त्व, रज एवं तम, ये विभिन्न अनुपातों में मनुष्य में पाये जाते हैं, और रजोगुण के कारण ही मनुष्य दुष्कृत्य करता पाया जाता है।" शान्तिपर्व (अध्याय १६३) में आया है कि क्रोध एवं काम आदि तेरह अत्यन्त शक्तिशाली शत्र मनुष्य में पाये जाते हैं, ऐसा कहा गया है कि क्रोध लोभ से उत्पन्न होता है और लोभ अज्ञान से उदित होता है (श्लोक ७ एवं ११) । किन्तु उस अध्याय में अज्ञान के उदय के विषय में सन्तोषजनक विवेच गौतम (१९४२) का कथन है-"विश्व में मनष्य दुष्कर्मों से अपवित्र हो उठता है, यथा ऐसे व्यक्ति के लिए यज्ञ करना जो यज्ञ करने के अयोग्य है, निषिद्ध भोजन करना, जो कहने योग्य न हो उसे कहना, जो व्यवस्थित है उसे न करना तथा जो वजित है उसे करना।" याज्ञ० (३१२१९) का कथन है-"जो विहित है उसे न करने से, जो वजित है उसे करने से तथा इन्द्रिय-निग्रह न करने से मनुष्य गिर जाता है (पाप करता है)।" और देखिए मनु (११४४४) एवं शान्ति० (३४।२)। ___ बहुत प्राचीन काल से ही दुष्कृत्यों की गणना एवं उनकी कोटियों का निर्धारण होता आया है । ऋग्वेद (१०/५।६) में आया है--"कवियों (बुद्धिमानों या विद्वानों) ने सात मर्यादाएँ बनायी हैं, वह मनुष्य जो इनमें से किसी का अतिक्रमण करता है, पापी हो जाता है।" निरुक्त (६।२७) ने इस मन्त्र में निर्देशित सात पापों को इस प्रकार व्यक्त ७. न स्वो दक्षो वरुण ध्रुतिः सा सुरा मन्युविभीदको अचित्तिः। अस्ति ज्यायान्कनीयस उपारे स्वप्नश्चनेदनृतस्य प्रयोता॥ ऋ० (७।८६।६) । ८. एष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्यो उन्निनीषते एष उ एवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते। कौषीतकिया० उप० (३।९)। यही ब्रह्मसूत्र (२१११३४ एवं २।३।४१) का आधार है। ९. विहितस्याननुष्ठानानिन्दितस्य च सेवनात्। अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां नरः पतनमृच्छति ॥ याज्ञ० (३।२१९); अकुर्वन् विहितं कर्म प्रतिषिद्धानि चाचरन् । प्रायश्चित्तीयते ह्येवं नरो मिथ्या तु वर्तयन् ॥ शान्तिपर्व ३४।२। याज्ञवल्क्य के प्रथम पाद (३।२१९) के अनुसार गौतम ने पाप के उदय के दो कारण कहे हैं--"अथ खल्वयं पुरुषो याप्येन कर्मणा लिप्यते यथतदयाज्ययाजनमभक्ष्यभक्षणमवद्यवदनं शिष्टस्याक्रिया प्रतिषिद्धसेवनमिति। गौ० (१९।२)। और देखिए शबर (जैमिनि १२।३।१६) । १०. सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहुरो गात्। ऋ० १०।५।६; सप्त एव मर्यादाः कवयश्चक्रुः । तासामेकामपि अधिगच्छन्नंहरवान् भवति । स्तेयं तल्पारोहणं ब्रह्महत्या भ्रूणहत्यां सुरापानं दुष्कृतस्य कर्मणः पुनः पुनः सेवां पातके अनृतोद्यमिति । निरुक्त (६।२७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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