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________________ १०२० धर्मशास्त्र का इतिहास किया है - " स्तेय (चोरी), तत्पारोहण (गुरु की शय्या को अपवित्र करना), ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, सुरापान, एक ही दुष्कृत को बारम्बार करना एवं अनुतोद्य (किसी पापमय कृत्य के विषय में झूठ बोलना ) ।" तैत्तिरीयसंहिता (21५।११२ ५।३।१२।१-२), शतपथब्राह्मण (१३।३।१।१ ) एवं अन्य ब्राह्मण ग्रन्थों से प्रकट होता है कि प्रारम्भिक वैदिक काल में ब्राह्मणहत्या को सबसे बड़ा पाप कहा जाता था, किन्तु काठकसंहिता (३१1७) में भ्रूणहत्या को ब्रह्महत्या से बड़ा कहा गया है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ने एकत, द्वित एवं त्रित (जो पापों को दूर करने के लिए बलि का बकरा बनता था ) कथा कहते हुए निम्न पापियों की गणना की है— सूर्याभ्युदित ( जो सूर्योदय होने तक सोता रहता है), सूर्याभिनिर्मुक्त ( जो सूर्यास्त के समय ही सो जाता है), जिसके नख एवं दाँत काले हों, अप्रविधिषु (जो बड़ा बहिन के अविवाहित रहते छोटी बहिन का विवाह रचता है), बड़ा भाई जो अभी अविवाहित है और जिसका छोटा भाई विवाहित हो गया है (अर्थात् यह अविवाहित बड़ा भाई जिसके छोटे भाई का विवाह हो गया हो ), वह व्यक्ति जो अग्निहोत्र को त्याग देता है तथा ब्रह्महत्यारा ( तै० वा० ३१२।८।११) । और देखिए काठकसंहिता ( ३१।७ ) एवं अथर्ववेद ( ६ | ११३) । त्रित की कथा का आधार ऋग्वेद ( ८|४७/१३ ) में भी है। आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २।५।१२।२२ ) ने तैत्तिरीय ब्राह्मण की सूची में कुछ अन्य पापियों की संज्ञाएँ जोड़ दी हैं, यथा - दिधिषुपति ( उस स्त्री का पति जिसकी छोटी बहिन का विवाह पहले हो चुका रहता है), पर्याहित ( वह बड़ा भाई जिसके पूर्व छोटा भाई अग्निहोत्र आरम्भ कर लेता है), परिविविदान ( वह छोटा भाई जो बड़े भाई के पूर्व पैतृक सम्पत्ति का दायांश ले लेता है), परिविन्न ( वह बड़ा भाई जिसके पूर्व छोटा भाई पैतृक सम्पत्ति का दायांश ले लेता है ) । छान्दोग्योपनिषद् (५1१०1९ ) ने एक उद्धरण देकर पाँच पापियों के नाम गिनाये हैं- सोना चुरानेवाला, सुरा पीनेवाला, गुरु की शय्या अपवित्र करनेवाला, ब्राह्मण की हत्या करनेवाला, तथा वह जो इन चारों का साथ करता है।" बृहदारण्यकोपनिषद् ( ४।३।२२ ) ने चोर एवं भ्रूणहत्यारे को महापापियों में गिना है। पापों की संख्या और उनकी कोटियों के विषय में सूत्रों में विभिन्न मत पाये गये हैं। आपस्तम्बधर्मसूत्र ने पापों दो कोटियाँ दी हैं; पतनीय (वे पाप जिनसे जातिच्युतता की प्राप्ति होती है) एवं अशुचिकर (वे पाप जिनसे जातिच्तता तो नहीं प्राप्त होती किन्तु अशुचिता प्राप्त होती है ) । आपस्तम्ब० ( १/७/२११७-११) के अनुसार पतनीय पाप ये हैं-सोने का स्तेय (चोरी), अभिशस्त ( लांछित) करनेवाले अपराध, अध्ययन से प्राप्त वैदिक विद्या का उपेक्षा या प्रमाद के कारण पूर्ण हांस, भ्रूणहत्या, अपनी माता या पिता या उनकी सन्तानों के सम्बन्धियों से (अर्थात् ऐसे सम्बन्धियों से जो एक ही प्रकार के गर्भ से उदित हुए माने गये हैं) व्यभिचार-संसर्ग, सुरापान, वर्जित लोगों से संभोग-सम्बन्ध, आचार्या ( स्त्री-गुरु अर्थात् अध्यापिका आदि) की सखी से संभोग - कृत्य, अपने गुरु (पिता आदि ) की सखी से संभोग - कृत्य, किसी अजनवी की पत्नी से संभोग कृत्य, तथा इनके अतिरिक्त (जो वर्णित नहीं हैं) अन्य अधर्मों अथवा अनैतिक कार्यों का लगातार पालन । आपस्तम्ब ० ( १।७।२१।१० ) का कथन है कि कुछ लोगों के मत से किसी गुरु की पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री से संभोग पतनीय नहीं है। अशुचिकर पाप कृत्य आपस्तम्ब ० १।७।१२।१२-१८) ये हैं—-शूद्रों से आर्य नारी द्वारा संभोग करना; कुत्ते, मानव, ग्राम के कुक्कुट (मुर्गे) या ग्राम के शूकर ( सूअर ) ऐसे पशुओं का वर्जित मांस सेवन मानव का मल-मूत्र खाना; शूद्र द्वारा छोड़ा गया भोजन करना; अपपात्र स्त्रियों के साथ आर्य पुरुषों का संभोग । कुछ लोगों के मत से अशुचिकर कर्म भी पतनीय ठहराये ११. तदेष श्लोकः । स्तेनो हिरण्यस्य सुरां पिवंश्च गुरोस्तल्पमावसन् ब्रह्महा । चंते पतन्ति चत्वारः पञ्चमश्चाचरंस्तैः ॥ छा० उप० (५।१०।९ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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