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________________ १२५० धर्मशास्त्र का इतिहास च्चारण करता है - 'तुम तिल हो, सोम तुम्हारे देवता हैं, गोसव यज्ञ में तुम देवों द्वारा उत्पन्न किये गये हो, !,... Faat! नमः ।' कृत्य के विभिन्न भाग दाहिने से बायें किये जाते हैं । बायें हाथ के पितृतीर्थ से, क्योंकि वह यज्ञोपवीत दाहिने कंधे पर रखता है या दाहिने हाथ से जो बायें से संलग्न रहता है, वह पितरों को अर्घ्य निम्न शब्दों के साथ देता है"'पिता, यह तुम्हारे लिए अर्घ्य है, पितामह, यह तुम्हारे लिए अर्घ्य है, प्रपितामह, यह तुम्हारे लिए अर्घ्य है।' ब्राह्मणों को अर्घ्य लेने के लिए प्रेरित करते समय केवल एक बार 'स्वधा ! ये अर्घ्यजल हैं' कहना चाहिए और उसके उपरान्त यह बात उन जलों के लिए भी कहनी चाहिए जो ढारे जाते हैं; ऐसा करते समय यह कहना चाहिए- 'ये स्वर्गिक जल जो पृथिवी पर एवं वायव्य स्थलों पर उत्पन्न हुए हैं और वे जल जो भौतिक हैं, जो सुनहले रंग के हैं और यज्ञ के योग्य हैं-ऐसे जल हमारे पास कल्याण ले आयें और हम पर अनुग्रह करें। बचे हुए जल को अर्घ्य - जल रखनेवाले पात्रों में रखता हुआ वह (यजमान) यदि पुत्र की इच्छा रखता है तो अपना मुख उससे धोता है। वह उस पात्र को जिसमें पितरों के लिए अर्घ्यजल ढारा जाता है, तब तक नहीं हटाता जब तक कृत्य समाप्त नहीं हो जाता, उसमें पितर अन्तहित रहते हैं; ऐसा शौनक ने कहा है । उसी समय चन्दन, पुष्प, धूप, दीप एवं वस्त्र ब्राह्मणों को दिये जाते हैं । ( पिण्डपितृयज्ञ के लिए उपस्थापित स्थालीपाक से ) कुछ भोजन लेकर और उस पर घी छिड़ककर वह ब्राह्मणों से इन शब्दों में अनुमति माँगता है, 'मैं इसे अग्नि में अर्पित करूँगा, या मुझे अग्नि में इसे अर्पित करने दीजिए।' अनुमति इस प्रकार मिलती है, 'ऐसा ही किया जाय' या 'ऐसा ही करो'। तब वह, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, अग्नि में या यदि ब्राह्मण अनुमति दें तो, उनके हाथों में आहुति देता है; क्योंकि ब्राह्मण-ग्रन्थ में आया है--'अग्नि वास्तव में पितरों का मुख है ।' यदि वह ब्राह्मणों के हाथों में अर्पण करता है तो उसके लिए अलग भोजन देता है जब कि वे आचमन कर चुके रहते हैं और शेष भोजन उस भोजन में मिला दिया जाता है जो ब्राह्मणों को परोसा जाता है, क्योंकि ऐसा कहा गया है कि जो कुछ व्यक्त होता है वह ब्राह्मणों को दिया जाता है। जब वह देखता है कि ब्राह्मण लोग श्राद्ध भोजन से संतृप्त हो चुके हैं तो उसे 'मधु' (ऋ० १।९०।६-८) एवं 'उन्होंने खा लिया है, उन्होंने आनन्द मना लिया है', ऋ० ( ११८२१२ ) के मंत्रों को सुनाना चाहिए। ब्राह्मणों से यह पूछकर कि क्या भोजन अच्छा था ? (वे उत्तर देंगे कि अच्छा था ) और विभिन्न प्रकार के भोजनों के कुछ भागों को लेकर स्थालीपाक के भोजन के साथ ( उसका पिण्ड बनाने के लिए ) वह शेष भोजन ब्राह्मणों को दे देता है । उनके द्वारा अस्वीकृत किये जाने या अपने कुटुम्ब या मित्रों को दिये जाने की अनुमति पाकर वह पितरों के लिए पिण्ड रखता है। कुछ आचार्यों के मत से ब्राह्मणों के आचमन ( भोजनोपरान्त उठने के पश्चात् ) के उपरान्त पिण्ड रखे जाते हैं । शेषान्न के पास पृथिवी पर भोजन बिखेरने के उपरान्त और जनेऊ को बायें कंधे पर रखकर उसे (प्रथम पात्र को जिसका मुख नीचे था, हटाने एवं ब्राह्मणों को दक्षिणा देने के पश्चात् ) ब्राह्मणों से यह कहते हुए कि 'ओम् कहो, स्वधा' या 'ओं स्वधा!', ब्राह्मणों को बिदा देनी चाहिए।" स्थानाभाव से हमारे लिए ऋग्वेद के विभिन्न गृह्यसूत्रों, तैत्तिरीय शाखा ( बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, भरद्वाज एवं वैखानस ) के गृह्यसूत्रों, वाजसनेयी शाखा ( कात्यायन के श्राद्ध सूत्र ), सामवेद के ( यथा - गोभिल एवं खादिर) तथा अथर्ववेद ( कौशिक सूत्र ) के गृह्यसूत्रों में दिये गये मत-मतान्तरों का विवेचन करना सम्भव नहीं है । अब हम छन्दोबद्ध स्मृतियों की ओर झुकते हैं। मनु ( ३।२०८-२६५ ) ने श्राद्ध की विधि का सविस्तर वर्णन किया है । किन्तु याज्ञवल्क्यस्मृति ( ११२२६-२४९) का वर्णन कुछ संक्षिप्त है और साथ ही साथ अधिक प्रांजल ८०. जल या जल-युक्त चावल, पुष्प आदि जो सम्मान्य देवों या श्रद्धास्पद लोगों को अर्पण किया जाता है, उसे अर्घ्यं कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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