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________________ स्मृति ग्रन्थों में पार्वण श्राद्ध का विधान १२५१ ढंग से लिखा गया है। अतः हम उसे ही प्रस्तुत करते हैं--" जब आमंत्रित ब्राह्मण अपराह्न में आते हैं तो कर्ता दाहिने हाथ में पवित्र धारण करके" उन्हें आसन देता है और आचमन कराता है। यजमान की सामर्थ्य के अनुसार आमंत्रित ब्राह्मणों को देवकृत्य ( अर्थात् वैश्वदेविक कर्म ) में २, ४, ६ आदि की सम संख्या में एवं पितरों के श्राद्ध (पार्वण श्राद्ध) में विषम संख्या में ( ३ या ५ आदि) होना चाहिए; उन्हें गोबर से लेपित, पवित्र, चतुर्दिक् घिरी हुई एवं दक्षिण की ओर ढालू भूमि में बैठाना चाहिए। देवकृत्य (पार्वण श्राद्ध का वह भाग जिसमें विश्वेदेव बुलाये जाते हैं) में दो ब्राह्मणों को पूर्व की ओर बैठाना चाहिए और पितरों के कृत्य में तीन ब्राह्मणों को उत्तराभिमुख बैठाना चाहिए या दोनों (दैव एवं पित्र्य) में एक-एक ब्राह्मण भी बैठाया जा सकता है। यही नियम मातृपक्ष के पितरों के श्राद्ध के लिए भी प्रयुक्त होता है । पितृश्राद्ध एवं मातामह श्राद्ध में विश्वेदेवों की पूजा अलग-अलग या साथ-साथ की जा सकती है। इसके उपरान्त ब्राह्मणों के हाथों में (विश्वेदेवों के सम्मान में किये जानेवाले कृत्य के लिए प्रस्तुत) जल ढारने एवं आसन के लिए ( उनकी दायीं ओर) कुश देने के उपरान्त उसे (यजमान को ) आमंत्रित ब्राह्मणों की अनुमति से विश्वेदेवों का आवाहन ऋ० (२।४२।१३ या ६।५२।७ ) एवं वाज० सं० (७१३४) के मन्त्र के साथ करना चाहिए। विश्वेदेवों के प्रतिनिधिस्वरूप ब्राह्मणों के पास वाली भूमि पर यव बिखेरने चाहिए और तब धातु आदि के एक पात्र में पवित्र जल एवं यव तथा चन्दन- पुष्प डालने के उपरान्त उसे ब्राह्मणों के हाथों में अर्घ्य देना चाहिए ( इन कृत्यों के साथ बहुत-से मन्त्र भी हैं जिन्हें हम स्थानाभाव से छोड़ रहे हैं)। इसके उपरान्त हाथ धोने के लिए वैश्वदेव-ब्राह्मण या ब्राह्मणों के हाथ में जल ढारना चाहिए और उन्हें गंध, पुष्प, धूप, दीप एवं वस्त्र देना चाहिए। इसके उपरान्त दाहिने कंधे पर जनेऊ धारण करके (अर्थात् प्राचीनावीती ढंग से होकर ) कर्ता को पितरों को (अर्थात् प्रतिनिधिस्वरूप तीन ब्राह्मणों को) दुहराये हुए कुश (जल के साथ) बायीं ओर आसन के लिए देने चाहिए (अर्थात् पहले से दिये गये आसन की बायीं ओर विष्टर पर कुश रखे जाने चाहिए), तब उसे ब्राह्मणों से आज्ञा लेकर पितरों का आवाहन करना चाहिए। .. ब्राह्मणों के चारों ओर तिल बिखेरने के उपरान्त कर्ता को सभी उपयोगों के लिए यत्रों के स्थान पर तिल का प्रयोग करना चाहिए और देवकृत्य में किये गये सभी कृत्य ( यथा अर्घ्य आदि ) सम्पादित करने चाहिए। अर्घ्य देने के उपरान्त उसे ब्राह्मणों के हाथों की अँगुलियों से गिरते हुए जल-कणों को एक पात्र ( पितृपात्र) में एकत्र करना चाहिए और उसे फिर पृथिवी पर उलट देना चाहिए (दक्षिण की ओर के अंकुरों वाले कुशों के एक गुच्छ के ऊपर) और मन्त्रोच्चारण करना चाहिए। तब 'अग्नीकरण' (यज्ञ में अर्पण) करने के समय वह घृतमिश्रित भोजन लेता है, ब्राह्मणों से आज्ञा माँगता है और उनसे अनुमति मिलने पर अग्नि में (घृतमिश्रित भोजन के दो खण्ड) पिण्डपितृयज्ञ की विधि के अनुसार मेक्षण द्वारा डालता है।" उसे सम्यक् ढंग से श्राद्ध करने की इच्छा से दो खण्डों के उपरान्त बचे हुए भोजन को पित्र्य ब्राह्मणों को खिलाने के निमित्त रखे गये पात्रों में, जो विशेषतः चाँदी के होते हैं, परोसना चाहिए। पात्रों में भोजन परोसने के उपरान्त उसे उन पात्रों पर इस मन्त्र का पाठ ८१. 'पवित्र' के अर्थ के लिए देखिए इस ग्रंथ का खण्ड २, अध्याय २७ । दाहिने हाथ या दोनों हाथों में अनामिका अंगुली में दर्भों को जो अँगूठी पहनी जाती है, उसे लोग 'पवित्र' कहते हैं। मिताक्षरा ने कहा है कि आमंत्रित ब्राह्मणों को भी पवित्र धारण करना चाहिए। पवित्र शब्द की परिभाषा के लिए देखिए गोभिलस्मृति (१।२८) एवं अपरार्क (पृ० ४३ एवं ४८० ) । ८२. मेक्षण अश्वत्थ काष्ठ का एक अरत्नि लम्बा दण्ड होता है जिसके एक सिरे पर चार अंगुल लम्बाई में गोलाकार पट्ट होता है । यह बटलोई में पकती हुई सामग्रियों को मिलाने में प्रयुक्त होता है। ८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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