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________________ वैदिक एवं सूत्र ग्रंथों में पितृ पूजन संबन्धी विधान १२४९ स्थान पर यों रखते हैं —— जनेऊ को दाहिने कंधे पर रखना, अपराह्न के समय सम्पादन, चावलों को केवल एक बार स्वच्छ करना, उनको दक्षिणाग्नि पर रखना, उसी अग्नि में सर्वप्रथम देवों को दो आहुतियाँ देना, अग्नि कव्यवाहन एवं सोम पितृमान् को अर्पण करते समय के दो मंत्र, दक्षिण-अग्नि के दक्षिण रेखा या कूड बनाना, अग्नि (अग्नि- काष्ठ या उल्मुक) रखना, तीनों पितरों को अवनेजन ( जल से मार्जन ) कराना, जड़ समेत दर्भ को अलग करना, दर्भों को रेखा पर रखना और तीन पिण्डों को उपर तीन पितरों के लिए रखना, एक क्षण के लिए पिण्डों से मुख हटा लेना और पुनः ज्यों का त्यों हो जाना, तब यह कहना कि पितर सन्तुष्ट हो गये हैं, प्रत्यवनेजन ( पुनः जल से स्वच्छ ) कराना, यजमान का वस्त्र खींचना तथा छः बार अभिवादन करना ( एवं पितरों को छः ऋतुओं के समान समझना ), पितरों से घर देने के लिए प्रार्थना करना, पिण्ड को सूंघना, दर्भों एवं उल्मुक को अग्नि में डालना । आजकल भी शुक्ल यजुर्वेदी लोगों द्वारा पार्वण श्राद्ध में ये ही विधियों की जाती हैं, केवल कुछ बातें और जोड़ दी गयी हैं, यथा--माता के पितरों को बुलाना एवं अन्य मन्त्रों का उच्चारण । कात्यायन (श्राद्धसूत्र ४। १ ) ने शतपथब्राह्मण का अनुगमन किया है किन्तु कुछ बातें जोड़ दी हैं, यथा-- हाथ जोड़ना और छः मन्त्रों का पाठ करना (वाज० सं० २१३२, नमो वः पितरो रसाय आदि), एतद्व: ( वाज० सं० २१३३ ) के साथ पिण्डों पर तीन सूतों या परिधान का ऊनी भाग या यजमान की छाती के बाल ( जब कि वह ५० वर्ष से ऊपर का हो ) रखना, वाज० सं० (२१३४ ) के साथ पिण्डों पर उनके पास जल छिड़कना । " अन्य संहिताओं में भी समान मन्त्र पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ, वाज० सं० (२१२९ --- ३४) के मन्त्र साकमेघ में सम्पादित होने वाले पिण्डपितृयज्ञ में प्रयुक्त होते हैं । मैत्रायणी स० ( १११-१३।२० - २१ ) के बहुत-से मन्त्र वाज० सं० या तै० ब्रा० ( १।१०।३-११ ) के हैं। इसी प्रकार अन्य मन्त्र भी समान ही हैं । अब हम सूत्र - साहित्य की ओर आते हैं। हम आश्व० गृ० (४।७-८ ) में उल्लिखित पार्वण श्राद्ध की विधि का वर्णन करेंगे। अनाकुला व्याख्या ( आप० गु०, २१।१ ) में कहा है कि अष्टका एवं अन्य श्राद्धों की, जिनमें तीन पूर्वपुरुष बुलाये जाते हैं, विधि या प्रकृति मासिश्राद्ध ( मासिक श्राद्ध ) वाली ही होती है। यह इस प्रकार है--" पार्वण श्राद्ध, काम्य श्राद्ध, आभ्युदयिक श्राद्ध या एकोद्दिष्ट श्राद्ध में ऐसे ब्राह्मणों को बैठता है जो विद्या, नैतिक चरित्र एवं साधु-आचरण से युक्त होते हैं, या जो इनमें से किसी एक से युक्त होते हैं, जो उचित काल में आमन्त्रित हुए हैं, जिन्होंने स्नान कर लिया है, जिनके पैर ( यजमान द्वारा ) धो दिये गये हैं, जो आचमन कर चुके हैं, जो पितरों के प्रतिनिधि या बराबर हैं और एक-एक, दो-दो एवं तीन-तीन की संख्या में प्रत्येक पितर के प्रतिनिधिस्वरूप उत्तर मुख करके बैठ गये हैं । जितने अधिक ब्राह्मण आमंत्रित हुए हो उतना ही अधिक फल प्राप्त होता है, किन्तु सभी पितरों के लिए एक ही ब्राह्मण नहीं बुलाना चाहिए; या प्रथम श्राद्ध को छोड़कर अन्यों में एक ब्राह्मण भी बुलाया जा सकता है। पिण्डपितृयज्ञ की विधि में ही पार्वण श्राद्ध के नियम संनिहित हैं । ब्राह्मणों के हाथों में, जब वे बैठ जाते हैं, जल देते हैं एवं दर्भ की नोक दुहराकर गांठ देने (जिन पर वे बैठाये जायँगे) के उपरान्त, उनको पुनः जल देने एवं सोने-चाँदी, पत्थर के एवं मिट्टी के पात्रों में जल ढारने या एक ही द्रव्य से बने पात्रों में जो दर्भों से ढँके हुए हैं जल ढारने के उपरान्त एवं पात्रों के जल पर ऋ० (१०।९।४) के 'शन्नो देवी' के पाठ के उपरान्त यजमान जल में तिल डालता है और निम्न मन्त्रो ७९. जब पितरों को पिण्ड दिया जाता है तो यह पितृतीर्थ (अँगूठे एवं तर्जनी के बीच के भाग) से दिया जाता है । यजमान कृत्य के आरम्भ होने पर एक उत्तरीय धारण करता है, जिसकी दशा या बिना बुना हुआ किनारा वह कमर में लपेटे हुए वस्त्र (नीवी) से जोड़ देता है। उसे ही वह आगे खींच लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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