SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४० धर्मशास्त्र का इतिहास शन्मत ने श्राद्ध में तिल, मुद्ग एवं माष के अतिरिक्त सभी काली भूसी वाले अन्नों को वर्जित माना है । स्थानाभाव से इस विषय में हम और नहीं लिखेंगे। देखिए मिता० ( याज्ञ० १।२४० ) । इस ग्रन्थ के खण्ड २, अध्याय २२ में प्रयुक्त एवं अप्रयुक्त होनेवाले दूध के विषय में लिखा जा चुका है। कुछ बातें यहाँ और दी जा रही हैं। मनु ( ३।२७१ ) एवं याज्ञ० (१।२५८) ने व्यवस्था दी है कि यदि गाय का दूध या उसमें भात पकाकर (पायस) दिया जाय तो पितर लोग एक वर्ष तक सन्तुष्ट रहते हैं। वायु० (७८२१७), ब्रह्म० ( २२० । १६९), " मार्कण्डेय ० ( ३२।१७।१२) एवं विष्णु० (३।१६।११) ने श्राद्ध में भैंस, हरिणी, चमरी, भेड़, ऊंटनी, स्त्री एवं सभी एक खुर वाले पशुओं के दूध एवं उससे निर्मित दही एवं घृत का प्रयोग वर्जित माना है । किन्तु भैंस घृत को सुमन्तु एवं देवल ने वर्जित नहीं ठहराया है (हेमाद्रि, श्रा०, पृ० ५७२ ) । मार्कण्डेय ० ( २९।१५-१७), वायु० ( ७८११६) एवं विष्णुपुराण ( ३।१६।१०) ने कहा है कि श्राद्ध में प्रयुक्त होनेवाला जल दुर्गन्धयुक्त, फेनिल एवं अल्प जल वाली बावली का अर्थात् पंकिल नहीं होना चाहिए और न वह उस स्थल का होना चाहिए जिसके पीने पर गाय की तुष्टि न हो सके, उसे बासी नहीं होना चाहिए, वह उस जलाशय का नहीं होना चाहिए जो सबको समर्पित न हो और न वह उस हौज से लिया जाना चाहिए जिसमें पशु जल पीते हैं।" श्राद्ध में प्रयुक्त एवं अप्रयुक्त होनेवाले मूलों, फलों एवं शाकों के विषय में कतिपय नियमों की व्यवस्था दी हुई है। उदाहरणार्थ, ब्रह्मपुराण (२२०११५६-१५८) ने कई प्रकार के फलों के नाम लिये हैं, यथा-आम, बेल, दाड़िम, नारियल, खजूर, सेब, जो श्राद्ध में दिये जा सकते हैं। देखिए शंख (१४।२२-२३) । वायु० (७८।११-१५) का कथन है कि लहसुन, गाजर प्याज तथा अन्य वस्तुएँ जिनके स्वाद एवं गन्ध बुरे हों तथा वेद-निषिद्ध वृक्ष - रस, खारी भूमि से निकाले हुए नमक आदि का श्राद्ध में ग्रहण नहीं होना चाहिए।" और देखिए विष्णुधर्मसूत्र (७९।१७) ।" रामायण में आया है कि दण्डकारण्य में रहते हुए राम ने इंगुदी, बदर एवं बेल से पितरों को सन्तुष्ट किया; उसमें यह भी कहा गया है कि देवताओं को वही भोजन अर्पित होता है जिसे व्यक्ति स्वयं खाता है । " स्थानाभाव से स्मृतियों एवं वृषकान् । लोहितान् वृक्षनिर्यासान् श्राद्धकर्मणि वर्जयेत् ॥ शंख ( १४।२१ ) ; हेमाद्रि (श्र०, पृ० ५४८) ने 'कोरडूबक' को 'वनकोद्रव' के अर्थ में लिया है। ६३. माहिषं चामरं मार्ग माविकैकशफोद्भवम् । स्त्रेणमोष्ट्रमांविकं च ( मजाबीकं ? ) दधि क्षीरं घृतं त्यजेत् ॥ ब्रह्म० (२२०।१६९; हेमाद्रि, श्रा०, पृ० ५७३ ) । ६४. दुर्गन्धि फेनिलं चाम्ब तथैवाल्पतरोवकम् । न लभेद्यत्र गौस्तृप्तिं नक्तं यच्चाप्युपाहृतम् ॥ यन्त्र सर्वार्थमुत्सृष्टं यच्चाभोज्यनिपानजम् । तद्वज्यं सलिलं तात सदैव पितृकर्मणि ॥ मार्कण्डेय० (२९।१५ - १७) । और देखिए ब्रह्माण्ड ० ( उपोद्घातपाद १४।२६) । ६५. लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डं पिण्डमूलकम् । करम्भाद्यानि चान्यानि होनानि रसगन्धतः ॥... अवेदोक्ताश्च निर्यासा लवणान्यौषराणि च । श्राद्धकर्मणि वर्ज्यानि याश्च नार्यो रजस्वलाः । वायु० (७८ । १२ एवं १५; हेमाद्रि, श्रा०, पृ० ५५५ एवं स्मृतिच० आ०, पृ० ४१६) । स्मृतिच० (श्रा०, पृ० ४१५ ) ने सुश्रुत से डेढ़ श्लोक उद्धृत कर पलाण्डु के दस प्रकार दिये हैं। , - - - ६६. पिप्पली - मुकुन्दक भूस्तृण शिग्रु सर्वप सुरसा सर्जक - सुवर्चल- कूष्माण्ड- अलाबु - वार्ताकु-पालंक्याउपोant - तण्डुलीयक कुसुम्भ- पिण्डालुक-महिषीक्षीराणि वर्जयेत् । वि० ध० सू० (७९/१७) । ६७. इंगुदैर्बवबिल्वं रामस्तर्पयते पितॄन् । यवनं पुरुषो भुंक्ते तवान्नास्तस्य देवताः ॥ रामायण, अयोध्या ( १०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy