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________________ श्राद्धोपयोगी जल, दूध, शाक, फल, फूल, कुश, तिल का विचार १२४१ पुराणों में वर्णित बातों का विस्तार यहाँ नहीं दिया जा रहा है। स्मृत्यर्थसार (पृ० ५२-५३), रुद्रधर के श्राद्धविवेक (पृ० ४३-४७) आदि ने एक स्थान पर ग्राह्य एवं वर्जित भोजनों, शाकों, मूलों एवं फलों की सूची दी है। बनाया हुआ नमक वजित है, किन्तु झील या खान से स्वाभाविक रूप में प्राप्त नहीं। अलग से नमक नहीं दिया जा सकता (वि० ५० सू० ७९।१२) किन्तु पकते हुए शाक में डाला हुआ नमक वर्जित नहीं है। हींग के विषय में मतैक्य नहीं है (हेमाद्रि, श्रा०, पृ० ५६५) । वि० ध० सू० (७९।५-६) में आया है कि उग्र गन्धी या गन्धहीन पुष्पों, काँटे वाले पौधों की कलियों एवं लाल पुष्पों का प्रयोग वजित है, किन्तु जल में उत्पन्न, कण्टक वाले, गन्धयुक्त फूलों का चाहे वे लाल भी क्यों न हों, प्रयोग हो सकता है। और देखिए शंख (१४॥१५-१६)। वायु० (७५।३३-३५) ने भी यही कहा है, किन्तु उसने इतना जोड़ दिया है कि जपा, भण्डि, रूपिका (आक की) एवं कुरण्टक के पुष्प श्राद्ध में वर्जित हैं। ब्रह्मपुराण (२२०११६२-१६५) ने श्राद्ध में प्रयुक्त होनेवाले कुछ विशिष्ट पुष्पों के नाम दिये हैं, यथा--जाती, चम्पक, मल्लिका, आम्रबीर, तुलसी, तगर, केतकी तथा श्वेत, नील, लाल आदि कमल-पुष्प। स्मृत्यर्थसार ने तुलसी को वर्जित वस्तुओं में परिगणित किया है। स्मृतिच० (श्रा०, पृ० ४३५) ने लिखा है कि किस आधार पर तुलसी को वजित किया गया है यह स्पष्ट नहीं है। श्राद्ध में कुशों की आवश्यकता पड़ती है। कुश के विषय में सामान्य विवेचन के लिए देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय १७ । कुछ अन्य बातें यहाँ जोड़ दी जा रही हैं। शतपथ ब्राह्मण (७।२।३।२) में आया है कि वे जल, जो वृत्र के लिए घृणास्पद सिद्ध हुए वे मरुभूमि में चले गये और दर्भो के पोधों में परिणत हो गये। इसी प्रकार आश्व० गृ० (३।२।२) ने एक ब्राह्मण-वचन का निष्कर्ष देते हुए कहा है कि दर्भ जल एवं ओषधियों का सारतत्त्व है। प्रजापति० (९८) में आया है कि ब्राह्मण द्वारा प्रातःकाल किसी पवित्र स्थल से दर्भ एकत्र किये जाने चाहिए। उन पर मन्त्रपाठ करना चाहिए, उन्हें हरे रंग का होना चाहिए और गाय के कान की लम्बाई के बराबर होना चाहिए, तभी वे पवित्र होते हैं।" गोभिल गृ० (११५।१६-१७) में आया है-बहिं वे कुश हैं जो तने के पास से निकले हुए अंकुरों के काटने से बनते हैं किंतु पितरों के श्राद्ध में जड़ से उखाड़े हुए अंकुर प्रयुक्त होते हैं। दक्ष (२।३२ एवं ३५) में आया है कि दिन (आठ भागों में विभक्त) के दूसरे भाग में ईंधन, पुष्प एवं कुश एकत्र करने चाहिए। गोभिलस्मृति (१।२०-२१) का कथन है कि यज्ञ में, पाकयज्ञों, पितृ-कृत्यों एवं वैश्वदेव-कृत्यों में कम से हरे, पीले, जड़ से निकाले हुए (समूल) एवं कल्माष (कृष्ण-पीत) दों का प्रयोग होना चाहिए, हरे एवं बिना अंकुर कटे, चिकने एवं अच्छी तरह बढ़े, एक अरनि लम्बे एवं पितृतीर्थ (हाथ के एक विशिष्ट भाग) से स्पर्श किये हुए दर्भ पवित्र कहे जाते हैं। पद्म० (सृष्टि० ११।९२) एवं स्कन्दपुरण (७।१।२०५।१६) का कहना है कि कुश एवं तिल विष्णु के शरीर से ३०, १०४।१५; हेमाद्रि, श्रा०, पृ० ५६१; मेधातिथि, मन ५७; स्मृतिच०, श्रा०, पृ० ४१६)। स्कन्द० (नागर खण्ड, २२०।४९) में आया है--'यवन्नं पुरुषोऽश्नाति तवनास्तस्य देवताः।' ६८. शतपथब्राह्मण में दर्भ के विषय में निम्न गाथा है और यह शब्द 'दृ' से बना है-'आपश्च ह्येता ओषधयश्च या वै वृत्राद बीभत्समाना आपो धन्व दृभन्त्य उदायंस्ते दर्भा अभवन् यद्भन्त्य उदायस्तस्माद्दर्भाः। ता हैताः शुखा मेध्या आपो वाभिप्रक्षरिता यद्दस्तेिनौषषय उभयेनैवैनमेतदनेन प्रीणाति । (७।२।३२)। ६९. मन्त्रपूता हरिद्वर्णाः प्रातविप्रसमुद्धृताः। गोकर्णमात्रा दर्भाः स्युः पवित्राः पुण्यभूमिजाः॥ प्रजापति. (९८)। उत्पाटनमन्त्र यह है--'विरंचिना सहोत्पन्न परमेष्ठिनिसर्गज। नुद पापानि सर्वाणि भव स्वस्तिकरो मम॥ (स्मृतिच०, १, पृ० १०७ एवं अपरार्फ, पृ० ४५८)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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