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हविष्य वस्तुएँ; न्यायागत धन और सामग्री की पवित्रता; श्राव में ग्राह्य एवं त्याज्य अन्न १२३९ उल्लेख किया है। मनु (३।२५५) ने निष्कर्ष निकाला है कि श्राद्ध में धन (अर्थात् अत्यन्त महत्वपूर्ण बातें) ये हैंअपराह्म, दर्भ, श्राद्ध के निमित्त स्थान (या घर) की उचित स्वच्छता, तिल, उदारतापूर्ण व्यय (भोजन आदि में), व्यंजन एवं प्रसिद्ध (विद्वान्) ब्राह्मण।
मार्कण्डेय० का कथन है कि जब ब्रह्मा ने अकालपीड़ित लोगों के लिए पृथिवी को दुहा तो कई प्रकार के अन्नदाता पौधे (कुछ कृषि से उत्पन्न होनेवाले और कुछ जंगल में प्राप्त होनेवाले) उत्पन्न हए; किन्तु ब्रह्मवैवर्त (हेमाद्रि, श्रा०, पृ०५६७) में आया है कि इन्द्र द्वारा सोमरस पिये जाते समय कुछ बूंदें नीचे गिर पड़ी तब उनसे निम्न अन्न उत्पन्न हुए-श्यामाक, गेहूँ, यव, मुद्ग एवं लाल धान; ये अन्न सोमरस से उत्पन्न हुए थे अतः पितरों के लिए अमृतस्वरूप हैं और इन्हीं से बना हुआ भोजन पितरों को देना चाहिए। मार्कण्डेय ने सात प्रकार के प्राम्य एवं सात प्रकार के आरण्य (बनले) अन्नों का उल्लेख किया है। प्रजापति (११९) ने आठ प्रकार के अन्नों के प्रयोग की बात कही है; नीवार, माष, मुद्ग, गेहूँ, धान, यव, कण (भूसी निकाला हुआ अन्न) एवं तिल। मत्स्य ० (हेमाद्रि, श्रा०, पृ० ५३८) ने वर्णन किया है कि जब सूर्य ने अमृत पीना आरम्भ किया तो कुछ बूंदें गिर पड़ीं जिनसे कई प्रकार के धान , मुद्ग एवं ईख उत्पन्न हुई, अतः ईख पवित्र है और देव-पितृ-यज्ञों में उसका प्रयोग हो सकता है। मार्कण्डेय० (८२९।९-११) ने श्राद्धोपयोगी कई अन्नों का उल्लेख किया है। ब्रह्मपुराण (२२०।१५४-१५५), वायु० (८२।३), विष्णुपुराण (३।१६।५-६), विष्णुधर्मसूत्र (८०।१) एवं ब्रह्माण्ड० (२।७।१४३-१५२ एवं ३।१४) में श्राद्धोपयोगी विभिन्न अन्नों की समान सूचियाँ दी हुई हैं। वायु० (८०।४२-४८) ने विभिन्न प्रकार के अन्नों, ईख, घृत एवं दूध से बनाये जानेवाले खाद्य-पदार्थों का उल्लेख किया है।
कुछ विशिष्ट अन्न एवं खाद्य-पदार्थ वर्जित माने जाते हैं। उदाहरणार्थ, मत्स्य० (१५।३६-३८) एवं पन० (सृष्टिखण्ड, ९।६२-६६) ने घोषित किया है कि मसूर, सन, निष्पाव, राजमाष, कुसुम्भिक, कोद्रव, उदार, चना, कपित्थ, मधूक एवं अतसी (तीसी) वर्जित है।" विष्णुधर्मसूत्र (७९।१८) ने व्यवस्था दी है कि श्राद्धकर्ता को राजमाष, मसूर, पर्युषित (बासी) भोजन एवं समुद्र के जल से निर्मित नमक का परहेज करना चाहिए। षट्त्रिं
ने एक स्मृति-वचन के आधार पर कुतप के नौ अर्थ दिये हैं--ब्राह्मणः कम्बलो गावः सूर्योऽग्निस्तिथिरेव च। तिला वर्भाश्च कालश्च नवते कुतपाः स्मृताः॥' और देखिए लघु शातातप (१०९, था० कि० को०, पृ. ३१७)।
५९. राजश्यामाकश्यामाको तच्चैव प्रशान्तिका। नीवाराः पौष्कराश्चव बन्यानि पितृतृप्तये॥ यवत्रीहिसगोधूमतिलमुद्गाः ससर्षपाः। प्रियंगवः कोद्रवाश्च निष्पावाश्चातिशोभनाः॥ वा मर्कटकाः श्राखे राजमाषास्तयाणवः। विप्रूषिका मसूराश्च श्राद्धकर्मणि गहिताः॥ (माकं० २९।९-११)।
६०. तिलोहियवर्मावरद्भिर्मूलफलैः शाकः श्यामाकः प्रियङ्गुभिनी वार मुद्गर्गोधूमश्च मासं प्रीयन्ते । विष्णुधर्म० (८०१)।
६१. द्वेष्याणि संप्रवक्ष्यामि श्रावे वानि यानि तु। मसूरशणनिष्पावराजमाषकुसुम्भिकाः... क्रोद्रवोदारचणकाः कपित्यं मधुकातसी॥ मत्स्य० (१५।३६-३८; हेमाद्रि, श्रा०, पृ० ५४८-५४९ एवं श्रा०प्र०, पृ०४०)। पन. (५।९।६४-६७ ; हेमाद्रि, पृ० ५४८) में भी यही सूची है। हेमाद्रि ने 'मधुक' को 'ज्येष्ठीमधु' कहा है और मत्स्य० में ऐसा पाठ है--'कोद्रवोद्दालवरककपित्य० । 'वरक' को हिन्दी में बरी कहा जाता है।
६२. राजमावमसूरपर्युषितकृतलवगानि च। विष्णुधर्म० (७९।१८); राजमाषान्मसूरांश्च कोद्रवान् कोर
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