________________
१२३४
धर्मशास्त्र का इतिहास
o
२८), कूर्म ० ( उत्तरार्ध, २२।२८) में भी यही बात पायी जाती है; 'बड़ी संख्या निम्न पांच रूपों को नष्ट कर देती है; आमंत्रितों का सम्यक् सम्मान ( सत्क्रिया), उचित स्थान की प्राप्ति ( यथा दक्षिण की ओर ढालू भूमि), काल, शौच ( पवित्रता) एवं शीलवान् ब्राह्मणों का चुनाव; अतः बड़ी संख्या (विस्तार) की इच्छा नहीं करनी चाहिए। *" कर्म (उत्तरार्ध, २२।३२ ) ने बल देकर कहा है कि श्राद्ध में एक अतिथि को अवश्य खिलाना चाहिए नहीं तो श्राद्ध प्रशंसा नहीं पाता । यद्यपि इन प्राचीन ग्रंथों ने श्राद्ध कर्म में अधिक व्यय नहीं करने को कहा है तथापि कुछ स्मृतियों ने अधिक परिमाण में सम्पत्ति व्यय की व्यवस्था दी है। उदाहरणार्थ, बृहस्पति ने कहा है- 'उत्तराधिकारी को दाय का आधा भाग मृत के कल्याण के लिए पृथक रख देना चाहिए और उसे मासिक, छमासी (पाण्मासिक) एवं वार्षिक श्राद्धों में व्यय करना चाहिए ।' दायभाग (११।१२ ) ने इसका अनुमोदन किया है और आप० ध० सू० (२|६| १३ | ३ ) का उद्धरण दिया है - 'सपिण्ड के अभाव में आचार्य (वेद - शिक्षक ), आचार्य के अभाव में शिष्य दाय लेता है और उसे मृत 'के कल्याण के लिए धर्मकृत्यों में व्यय करना चाहिए (या वह स्वयं उसका उपभोग कर सकता है) ।' इन वचनों से प्रकट होता है कि कुछ लेखकों ने मृतात्मा के कल्याण के मत को भारत में कितनी दूर तक प्रकाशित किया है। कुछ व्यावहारिक लेखकों ने, यथा हरदत्त आदि ने, इन सीमातिरेकी मतों को पसन्द नहीं किया है। वायु ० ( ८२०१९), विष्णुपुराण आदि में स्पष्ट रूप से आया है कि गया में श्राद्ध करते समय वित्तशाठ्य ( कंजूसी) नहीं करना चाहिए, प्रत्युत प्रभूत धन व्यय करना चाहिए, नहीं तो श्राद्ध सम्पादन से कर्ता उस तीर्थस्थान पर फल नहीं प्राप्त कर सकता।' और देखिए पद्म ( सृष्टि, ९।१७९ - १८१) । वायु० (८२।२६-२८) ने पुन: कहा है कि गया के ब्राह्मण अमानुष हैं, यदि वे श्राद्ध में सन्तुष्ट होते हैं तो देव एवं पितर लोग सन्तुष्ट होते हैं, ( गया के ब्राह्मणों के) कुल, शील, विद्या एवं तप के विषय में कोई प्रश्न नहीं उठाना चाहिए, उन्हें सम्मानित कर व्यक्ति मुक्ति पाता है, उन्हें सम्मानित करने के उपरान्त अपनी धन-योग्यता एवं शक्ति के अनुरूप श्राद्ध करना चाहिए; इसके द्वारा व्यक्ति सभी दैवी इच्छाओं की पूर्ति करता है और मोक्ष के साधनों से युक्त हो जाता है। स्कन्द० (६।२२२।२३ ) ने यहाँ तक कहा है कि यद्यपि गया के ब्राह्मण आचारभ्रष्ट (दुराचारी एवं पिछड़े हुए) हैं, तथापि श्राद्ध में आमंत्रित होने योग्य हैं और वेद एवं वेदांगों के पण्डित ब्राह्मणों से उत्तम हैं ।° निर्णयसिन्धु ( ३, पृ० ४०१ ) ने टिप्पणी की है कि उनके पितामह - कृत त्रिस्थलीसेतु के मत से, यह व्यवस्था गया में केवल अक्षयवट पर श्राद्ध करने के विषय में है न कि अन्य स्थानों के विषय
४८
४७. सत्क्रिया देशकालौ च शौचं ब्राह्मणसम्पदः । पञ्चैतान् विस्तरो हन्ति तस्मान्नहेत विस्तरम् ॥ मनु ( ३।२२६) ।
४८. वित्तशाठ्यं न कुर्वीत गयाश्राद्धे सदा नरः । वित्तशाठ्यं तु कुर्वाणो न तीर्थफलभाग्भवेत् ॥ वायु० (८२ १९ ) | देखिए स्मृतिच० ( श्रा०, पृ० ३८८ ) – ' अतो वित्तानुसारेण शारीरबलानुसारेण च गयायां श्राद्धं कार्यम् ।' ( सृष्टि०, ९।१७९-१८१) में आया है--'सतिलं नामगोत्रेण दद्याच्छक्त्या च दक्षिणाम् । गोभूहिरण्यवासांसि भव्यानि शयनानि च । दद्याद्यविष्टं विप्राणामात्मनः पितुरेव च । वित्तशाठ्येन रहितः पितृभ्यः प्रीतिमाहरन् ॥
पद्म०
४९. अमानुषता विप्रा (अमानुषा गयाविप्रा ? ) ब्राह्मणा (ब्रह्मणा ? ) ये प्रकल्पिताः । तेषु तुष्टेषु संतुष्टाः पितृभिः सह देवताः ॥ न विचार्य कुलं शीलं विद्या च तप एव च । पूजितैस्तैस्तु राजेन्द्र मुक्तिं प्राप्नोति मानवः । ततः प्रवर्तयेच्छ्राद्धं यथाशक्तिबलाबलम् । कामान्स लभते विव्यान्मोक्षोपायं च विन्दति ।। वायु० (८२।२६-२८) । ५०. अथाचारपरिभ्रष्टाः श्राद्धार्हा एव नागराः । बलीवर्व समानोऽपि ज्ञातीयो यदि लभ्यते । किमन्यैर्बहुभिविप्रैर्वेदवेदांगपारगः ॥ स्कन्दपुराण (६।२२२।२३ ) ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org