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श्राख में भोजनीय ब्राह्मणों की योग्यता
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३३१४७)" ने उपर्युक्त उक्तियों का निष्कर्ष निकाला है कि वैसा विद्वान् ब्राह्मण, जिसने वेद का अध्ययन कर लिया है, जो साघु आचरण वाला है, जो प्रसिद्ध कुल का है, जो श्रोत्रिय पिता का पुत्र है और जो कर्ता का सम्बन्धी नहीं है, उसे अवश्य आमंत्रित करना चाहिए और शेष केवल अर्थवाद (प्रशंसा मात्र) है। मनु (३।२२८) ने दो बातें कही हैं; देवों और पितरों के लिए अर्पित भोजन केवल उसी ब्राह्मण को देना चाहिए जो वेदज्ञ हो। जो वस्तु अत्यन्त योग्य ब्राह्मण (वेदज्ञ ब्राह्मणों के अन्तर्गत) को दी जाती है, उससे सर्वोच्च फल प्राप्त होते हैं। इसके उपरान्त मनु (३।१८३) ने उद्घोष किया है कि पंक्तिपावन ब्राह्मण वे हैं जो भोजन करने वालों की उस पंक्ति को पवित्र करते हैं जिसमें ऐसे लोग भी पाये जाते हैं जो (अपने अन्तहित) उन दोषों से यक्त हैं जो उन्हें भोजन करने वालों में बैठने के अयोग्य ठहराते हैं। मनु (३।१८४-१८६) ने पंक्तिपावन ब्राह्मणों के लक्षण लिखे हैं, यथाजो वेदों या उनके विश्लेषक ग्रंथों के शाखाध्यायियों में सर्वोत्तम हैं और अविच्छिन्न वैदिक परंपरा के कूल में उत्पन्न हए हैं और जो त्रिणाचिकेत अग्नि के ज्ञाता आदि हैं। हेमाद्रि (श्राद्ध, प०३९१-३९५) एवं कल्पतरु (श्राद्ध, पृ.० ६४-६५) ने यम के पंक्तिपावन-सम्बन्धी कतिपय श्लोक उद्धृत किये हैं।
मनु (३।१४७) का कथन है कि सर्वोत्तम विधि यह है कि जो ब्राह्मण सभी लक्षणों (मनु ३११३२-१४६) को पूरा करता हो उसे ही आमंत्रित करना चाहिए, किन्तु यदि किसी ऐसे ब्राह्मण को पाना असम्भव हो तो अनुकल्प (उसके बदले कुछ कम लक्षण वाली विधि) का पालन करना चाहिए, अर्थात् कर्ता अपने ही नाना, मामा, बहिन के पुत्र, श्वशुर, वेद-गुरु, दौहित्र (पुत्री के पुत्र), दामाद, किसी बन्धु (यथा मौसी के पुत्र), साले या सगोत्र या कुल-पुरोहित या शिष्य को बुला सकता है। ऐसी ही व्यवस्थाएँ याज्ञ० (११२२०), कूर्म० (उत्तरार्ध २१।२०), वराह० (१४।३), मत्स्य० (१६।१०-११), विष्णुपुराण (३।१५।२-४ अनुकल्पेष्वनन्तरान्) में भी पायी जाती हैं। किन्तु मनु ने सावधान किया है कि प्रथम सर्वोत्तम प्रकार के रहते हुए जब दूसरे उत्तम प्रकार का सहारा लिया जाता है तो पारलौकिक फल की प्राप्ति नहीं होती।" यहाँ तक कि आप० ध० सू० (२।७।१७।५-६) ने भी स्पष्ट रूप से कहा है कि यदि दूसरे लोगों के पास आवश्यक योग्यताएँ न हों तो, अपने भाई (सोदर्य) को, जो सभी गुणों (वेदविद्या एवं अन्य सदाचार आदि) से सम्पन्न हो एवं शिष्यों को श्राद्ध-भोजन देना चाहिए। बी० ध० सू० (२।८।५) ने सपिण्डों को भी खिलाने की अनुमति दी है। ऐसा लगता है कि गौतम (१५।२०) ने भी कहा है कि दूसरे गुणयुक्त लोगों के अभाव में उत्तम गुणशाली शिष्यों एवं सगोत्रों को भी आमन्त्रित कर लेना चाहिए। आजकल भी विद्वान् ब्राह्मण श्राद्ध-भोजन में सम्मिलित होने में अनिच्छा प्रकट करते हैं। विशेषतः जब व्यक्ति (जिसके लिए श्राद्ध किया जाता है) तीन या चार वर्ष पहले ही मृत हुआ हो। स्मृतियों ने श्राद्ध-भोज में सम्मिलित होनेवाले पर दोष मढ़ दिया है और
३४. श्रोत्रियो विद्वान् साधुचरणः प्रख्याताभिजनः श्रोत्रियापत्यमसम्बन्धी भोजनीयः। परिशिष्टं सर्वमर्यवादार्थम् । मेधातिथि (मनु ३३१४७)।
३५. मुख्याभावे योनुष्ठीयते प्रतिनिधिन्यायेन सोऽनुकल्प उच्यते। मेधा० (मनु ३।१४७)। अमरकोश में आया है-'मुख्यः स्यात्प्रथमः कल्पोऽनुकल्पस्तु ततोऽधमः।' प्रभुः प्रथमकल्पस्य योऽनुकल्पेन वर्तते । न साम्परायिक तस्य दुर्मविद्यते फलम् ॥ मनु (११॥३० =शांतिपर्व १६५।१७)। तन्त्रवातिक (पृ० १९१) में भी यह उद्धृत है, किन्तु वहाँ दूसरी पंक्ति यों है-'स नाप्नोति फलं तस्य परत्रेति विचारितम् ॥'
३६. गुणहान्यां तु परेषां समुदेतः सोदॉपि भोजयितव्यः। एतेनान्तवासिनो व्याख्याताः। आप० १० सू० (२१७१७१५-६)।
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