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________________ १२२४ धर्मशास्त्र का इतिहास पवित्र करते हैं) के विषय में गौतम (५।२८), बौघा० घ० सू० (२२८५२), मनु (३।१८५-१८६), याज्ञ० (११२१९) एवं वराहपुराण (१४।२) ने भी यही कहा है। अनुशासन पर्व (९०।२५-३१), कूर्म० (२।२१।१-१४), मत्स्य. (१६।७-१३), ब्रह्म (२२०।१०१-१०४), वायु० (७९।५६-५९ एवं ८३।५२-५५), स्कन्द पुराण (६।२१७॥ २१-२५) ने पंक्तिपावन ब्राह्मणों की लम्बी सूचियाँ दी हैं। हिरण्यकेशी गृह्य (२।१०।२), बौ० ध० सू० (२१२१७), कूर्म पुराण (२।२१ । १४) आदि का कथन है कि श्राद्धकर्ता को ऐसा व्यक्ति आमंत्रित नहीं करना चाहिए जो विवाह से संबंधित हो (यथा-मामा) और जो सगोत्र या वेदाध्ययन से सम्बन्धित हो (अर्थात् गुरु या शिष्य), या जो मित्र हो, या जिससे वह धन की सहायता पाने का इच्छुक हो। मनु (३।१३८-१३९) ने व्यवस्था दी है कि श्राद्ध-भोजन में मित्र को नहीं बुलाना चाहिए, (अन्य अवसरों पर) बहुमुल्य दान देकर व्यक्ति किसी को मित्र बना सकता है। श्राद्ध के समय ऐसे ब्राह्मण को आमंत्रित करना चाहिए जो न मित्र हो और न शत्रु; जो व्यक्ति केवल मित्र बनाने के लिए श्राद्ध करता है और देवार्पण करता है, वह उन श्राद्धों या अर्पणों द्वारा मृत्यु के उपरान्त कोई फल नहीं पाता। किन्तु मनु (३।१४४ कूर्म ०२ - २१-२२) ने कहा है विद्वान् शत्रु की अपेक्षा भित्र को आमंत्रित किया जा सकता है। मनु (३।१३५-१३७ एवं १४५१४७) ने कहा है कि मुख्य या अत्युत्तम नियम यह है कि श्राद्ध-भोजन उनको दिया जाय जो आध्यात्मिक ज्ञान में लीन रहते हों। जिसने सम्पूर्ण वेद का अध्ययन कर लिया है किन्तु जिसका पिता श्रोत्रिय न रहा हो और जो स्वयं श्रोत्रिय न हो किन्तु उसका पिता श्रोत्रिय हो इन दोनों में अन्तिम अपेक्षाकृत अधिक योग्य है। मनु ने यह भी कहा है कि ऐसे व्यक्ति को श्राद्ध-भोजन देने का प्रयत्न करना चाहिए जो ऋग्वेद का अनुयाय। हो, जिसने उस वेद को सम्पूर्ण पढ़ लिया हो या जो यजुर्वेद का अनुयायी हो और उसकी एक शाखा का अध्ययन कर चुका हो या सामवेद गानेवाला हो और सामवेद का एक पाठ पढ़ चुका हो। यदि इन तीनों में एक का सम्मानित किया जाय या श्राद्ध के समय भोजन कराया जाय तो कर्ता के पूर्वज सात पीढ़ियों तक दीर्घ काल के लिए संतुष्टि प्राप्त करते हैं। हारीत (हेमाद्रि, श्राद्ध, पृ० ३९२ एवं कल्पतरु, श्राद्ध, प०६६, ६७) ने पांक्तेय ब्राह्मणों की योग्यताओं का वर्णन किया है; यथा --- उन्हें उच्च (चार विशेषताओं से सम्पन्न) कुल में जन्म लेना चाहिए, और विद्या (६ प्रकार की) एवं शील (१३ प्रकार के चरित्र) एवं अच्छे (१६ प्रकार के) आचरण से सम्पन्न होना चाहिए। शंख-लिखित ने पांक्तेय ब्राह्मणों (पंक्ति अर्थात् भोजन करने वालों की पंक्ति से संबंधित होने योग्य) की एक लम्बी सूची दी है।३३ यथा--जो वेद अथवा वेदांगों का ज्ञाता है; जो पंचाग्नियाँ रखता है; जो वेदस्वाध्यायी है; जो सांख्य, योग, उपनिषदों एवं धर्मशास्त्र को जानता है; जिसने त्रिणात्रिकेत (अग्नि), त्रिमधु (सूक्त), त्रिसुपर्णक एवं ज्येष्ठ साम का अध्ययन कर लिया है। जिसने सांख्ययोग, उपनिषद् एवं धर्मशास्त्र पढ़ लिया है। जो वेदप्रवण है; जो सदा अग्निहोत्र करता है; जो माता-पिता का आज्ञाकारी है और धर्मशास्त्र-प्रवण है (कल्प०, पृ० ६८; श्रा० प्र०, पृ.० ६७)। ऐसे ही नियम विष्णुधर्मसूत्र (८३), बृहत् पराशर (पृ० १५०), वृद्ध गौतम (पृ० ५८१), प्रजापति (७०-७२), लघु शातातप (९९।१००), औशनस स्मृति में भी पाये जाते हैं। मेधातिथि (मनु ३३. शंखलिखितावपि। अथ पांक्तेयाः। वेदवेदाङ्गवित् पञ्चाग्निरनूचानः सांख्ययोगोपनिषधर्मशास्त्र. विच्छोत्रियः त्रिणाचिकेतः त्रिमधुः त्रिसुपर्णको ज्येष्ठसामगः। सांख्ययोगोपनिषद्धर्मशास्त्राध्यायी वेदपरः सदाग्निको मातापितृशुश्रूषुर्धर्मशास्त्ररतिः । इति । कल्पतरु (पृ० ६८) एवं श्रा०प्र० (१० ६७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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