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________________ श्राव में भोजनीय ब्राह्मणों की योग्यता १२२३ श्राद्ध-भोजन के लिए आमंत्रित लोग अब हम श्राद्ध के ब्रह्मभोज के लिए आमंत्रित ब्राह्मणों की योग्यताओं के प्रश्न पर विचार करेंगे। श्राद्ध का कर्ता चाहे जो भी हो, श्राद्धभोजन के लिए आमंत्रण पाने के अधिकारी केवल ब्राह्मण ही होते हैं। इस विषय में बहुत से ग्रन्थों ने ब्राह्मणों की प्रशस्तियाँ गायी हैं, जिन पर हम यहाँ विचार नहीं करेंगे, क्योंकि इसे हमने इस ग्रन्थ के खण्ड २, अध्याय २ एवं ३ में विस्तार के साथ देख लिया है। यह ज्ञातव्य है कि गृह्यसूत्रों में बहुत कम योग्यताएं वर्णित हैं किन्तु स्मृतियों एवं पुराणों के काल में निमन्त्रित होनेवाले लोगों की योग्यताओं की सूचियाँ बढ़ती ही चली गयीं। उदाहरणार्थ आश्व० गृ० (४।७।२)२२, शांखा० गृ० (४।१।२), आप० गृ० (८।२१।२), आप० घ० सू० (२।७।१७।४), हिरण्यकेशी ग० (२।१०।२), बौधा० गृ० (२।१०।५-६ एवं २।८।२-३), गौतम (१५।९) ने कहा है कि आमंत्रित ब्राह्मणों को वेदज्ञ, अत्यन्त संयमी (क्रोध एवं वासनाओं से मुक्त तथा मन एवं इन्द्रियों पर संयम करनेवाले) एवं शद्धाचरण वाले, पवित्र होना चाहिए और उन्हें न तो किसी अंग से हीन होना चाहिए और न अधिक अंग (यथा ६ अंगुली) वाले होना चाहिए। आप० ध० सू० का कहना है कि जिसने उन तीन वैदिक मन्त्रों को पढ़ लिया है जिनमें 'मधु' शब्द आता है (ऋ० ११९०।६-८, वाज० सं० १३।२७-२९ एवं तै० सं० ४।२।९।३), जिसने त्रिसुपर्ण पढ़ लिया है, जो त्रिणाचिकेत है, जिसने चारों यज्ञों (अश्वमेघ, पुरुषमेघ, सर्वमेध एवं पितृमेघ) में प्रयुक्त होनेवाले मंत्रों का अध्ययन कर लिया है या जिसने ये चारों यज्ञ कर लिये हैं, जो पाँचों अग्नियों को प्रज्वलित रखता है, जो ज्येष्ठ साम जानता है, जो वेदाध्ययन के प्रतिदिन का कर्तव्य करता है, जो वेदज्ञ का पुत्र है और अंगों के साथ सम्पूर्ण वेद पढ़ा सकता है और जो श्रोत्रिय है-ये सभी श्राद्ध के समय भोजन करनेवालों की पंक्ति को पवित्र कर देते हैं। पंक्तिपावन (जो लोग भोजन करनेवालों की पंक्ति को ३२. ब्राह्मणान् श्रुतशीलवृत्तसंपन्नानेकेन वा। आश्व० गृ० (४।७।२); ब्राह्मणान् शुचीन् मन्त्रवतः समंगानयुज आमन्त्रयते। योनिगोत्रासम्बन्धात् । नार्यावक्षो भोजयेत् । हिर० गृ० (२।१०।२); त्रिमस्त्रिसुपर्णस्त्रिणाचिकेतश्चतुर्मेधः पञ्चाग्निज्येष्ठसामिको वेदाध्याय्यनूचानपुत्रः श्रोत्रिय इत्येते श्राद्ध भुजानाः पंक्तिपावना भवन्ति। आप० घ० सू० (२।७।१७-२२) । 'त्रिसुपर्ण' शब्द, हरदत्त के मत से, 'ब्रह्ममेतु माम्' (ले० आ० १०॥४८-५०) से आरम्भ होनेवाले तीन अनुवाकों में या 'चतुःशिखण्डा युवतिः सुपेशाः' (त० ब्रा० श२।१।२७) या ऋ० (१०१११४॥३-५) से आरम्भ होनेवालों का नाम है। 'त्रिणाचिकेत' को तीन प्रकार से व्याख्यापित किया गया है-(१) जो नाचिकेत अग्नि को जानता है, (२) वह व्यक्ति जिसने नाचिकेत अग्नि को तीन बार प्रज्वलित किया है एवं (३) वह जिसने 'विरज नामक अनुवाक पढ़ डाला है। 'नाचिकेत' अग्नि के लिए देखिए कठोपनिषद् (१।१।१६-१८)। "त्रिणाचिकेत' शब्द कठोपनिषद् (१।१।१७) में आया है और शंकर ने उसे इस प्रकार समझाया है--'त्रिः कृत्वा नाचिकेतोऽग्निश्चितो येन सः त्रिणाचिकेतास्तद्विज्ञानस्तदध्ययनस्तदनष्ठानवान वा।' ब्रा० (३।२।७-८) ने नाचिकेत अग्नि को गाथा का उल्लेख किया है। पांच अग्नियाँ ये हैं--गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि, आवसथ्य (या औपासन) तथा सम्य। देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय १७। पंक्तिपावन, ज्येष्ठसामिक आदि शब्दों की व्याख्याओं के लिए देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय २२। देवल (श्रा० प्र०, पृ० ५९) ने श्रोत्रिय की परिभाषा यों की है--'एका शाखा सकल्पां वा षड्भिरङ्गरधीत्य वा। षट्कर्मनिरतो विप्रः श्रोत्रियो नाम धर्मवित् ॥' पाणिनि (५।२।८४). ने श्रोत्रिय को व्युत्पत्ति यों की है-'श्रोत्रियश्छन्दोधीते।''षट्कर्म' का संकेत 'यजनयाजनाध्ययनाध्यापनप्रतिग्रहवानानि की ओर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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