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धर्मशास्त्र का इतिहास
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स्थल चतुर्दिक् से आवृत, पवित्र एवं दक्षिण की ओर ढालू होना चाहिए। शंख ( परा० मा० १ २, पृ० ३०३ श्रा० प्र०, पृ० १४०; स्मृतिच०, श्राद्ध, पृ० ३८५) का कथन है- 'बैलों, हाथियों एवं घोड़ों की पीठ पर, ऊँची भूमि या दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए।' कूर्म० (२/२२/१७ ) में आया है-वन, पुण्य पर्वत, तीर्थस्थान, मन्दिरइनके निश्चित स्वामी नहीं होते और ये किसी की वैयक्तिक सम्पत्ति नहीं हैं । यम ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई किसी अन्य को भूमि पर अपने पितरों का श्राद्ध करता है तो उस भूमि के स्वामी के पितरों द्वारा वह श्राद्ध कृत्य नष्ट कर दिया है। अतः व्यक्ति को पवित्र स्थानों, नदी-तटों और विशेषतः अपनी भूमि पर पर्वत के पास के लताकुंजों एवं पर्वत के ऊपर श्राद्ध करना चाहिए ।" विष्णुधर्मसूत्र (अध्याय ८५ ) ने कई पवित्र स्थलों का उल्लेख किया है और जोड़ा है—' इनमें एवं अन्य तीर्थों, बड़ी नदियों, सभी प्राकृतिक बालुका-तटों, झरनों के निकट, पर्वतों, कुंजों, वनों, निकुंजों एवं गोबर से लिपे सुन्दर स्थलों पर ( श्राद्ध करना चाहिए ) ।' शंख ( १४।२७-२९ ) ने लिखा है कि जो भी कुछ पवित्र वस्तु गया, प्रभास, पुष्कर, प्रयाग, नैमिष वन (सरस्वती नदी पर ), गंगा, यमुना एवं पयोष्णी पर, अमरकंटक, नर्मदा, काशी, कुरुक्षेत्र, भृगुतुंग, हिमालय, सप्तवेणी, ऋषिकूप में दी जाती है वह अक्षय होती है । ब्रह्मपुराण (२२०/५-७ ) ने भी नदीतीरों, तालाबों, पर्वतशिखरों एवं पुष्कर जैसे पवित्र स्थलों को श्राद्ध के लिए उचित स्थल माना है । To (अध्याय ७७) एवं मत्स्य ० (२२) में भी श्राद्ध के लिए पूत स्थलों, देशों, पर्वतों की लम्बी सूचियाँ पायी जाती हैं ।
पवित्र स्थानों के विषय में हम एक पृथक् अध्याय (तीर्थ वर्णन ) में लिखेंगे ।
विष्णुधर्मसूत्र ( अ० ८४ ) ने व्यवस्था दी है कि म्लेच्छदेश में न तो श्राद्ध करना चाहिए और न जाना चाहिए; उसमें पुन: कहा गया है कि म्लेच्छदेश वह है जिसमें चार वर्णों की परम्परा नहीं पायी जाती। वायुपुराण ने व्यवस्था दी है कि त्रिशंकु देश, जिसका बारह योजन विस्तार है, जो महानदी के उत्तर और कीकट ( मगध ) के दक्षिण
है, श्राद्ध के लिए योग्य नहीं है। इसी प्रकार कारस्कर, कलिंग, सिंधु के उत्तर का देश और वे सभी देश जहाँ वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं पायी जाती, श्राद्ध के लिए यथासाध्य त्याग देने चाहिए। ब्रह्मपुराण (२२०१८ - १०) ने कुछ सीमा तक एक विचित्र बात कही है कि निम्नलिखित देशों में श्राद्ध टर्म का यथासंभव परिहार करना चाहिए -- किरात देश, कलिंग, कोंकण, क्रिमि (क्रिवि ? ), दशार्ण, कुमार्य ( कुमारी अन्तरीप ), तंगण, ऋथ, सिंधु नदी के उत्तरी तट, नर्मदा का दक्षिणी तट एवं करतोया का पूर्वी भाग ।
मार्कण्डेयपुराण (२९।१९ = श्रा० प्र०, पृ० १३९ ) ने व्यवस्था दी है कि श्राद्ध के लिए उस भूमि को त्याग देना चाहिए जो कीट-पतंगों से युक्त, रूक्ष, अग्नि से दग्ध है, जिसमें कर्णकटु ध्वनि होती है, जो देखने में भयंकर और दुर्गन्ध - पूर्ण है । प्राचीन काल से ही कुछ व्यक्तियों एवं पशुओं को श्राद्धस्थल से दूर रखने को कहा गया है, उन्हें श्राद्धकृत्य को
३०. गोगजाश्वादिपृष्ठेषु कृत्रिमायां तथा भुवि । न कुर्याच्छ्राद्धमेतेषु पारक्यासु च भूमिषु ॥ शंख ( परा० मा० ११२, पृ० ३०३ ; श्र० प्र०, पृ० १४० स्मृतिच० श्रा०, पृ० ३९५ ) । अटव्यः पर्वताः पुण्यास्तीर्थान्यायतनानि च । सर्वाण्यस्वामिकान्याहुनं ह्येतेषु परिग्रहः ॥ कूर्म० (२।२२।१७) । अपरार्क ( पृ० ४७१), कल्पतरु ( श्राद्ध, पू० ११५ ) एवं श्र० प्र० (१० १४८) ने ऐसा ही श्लोक यम से उद्धृत किया है- यमः । परकीयप्रदेशेषु पितॄणां निर्वपेत्तु यः । तद्भूमिस्वामिपितृभिः श्राद्धकर्म विहन्यते ॥ तस्माच्छ्राद्धानि देयानि पुष्येष्वायतनेषु च । नदीतीरेषु तीर्थेषु स्वभूमौ च प्रयत्नतः । उपह्वरनिकुंजेषु तथा पर्वतसानुषु ॥ अपरार्क ( पु० ४७१), कल्पतरु ( श्राद्ध, पू० ११५) । मिलाइए कूर्म० (२।२२।१६) ।
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