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________________ श्राद्ध के प्राचीन रूप पिण्डपितृयज्ञ, अष्टका - १२०७ हमने ऊपर लिख दिया है कि अति प्राचीन काल में मृत पूर्वजों के लिए केवल तीन कृत्य किये जाते थे; (१) पिण्डपितृयज्ञ ( उनके द्वारा किया गया जो श्रौताग्नियों में यज्ञ करते थे) या मासिक श्राद्ध ( उनके द्वारा जो श्रोताग्नियों में यज्ञ नहीं करते थे; देखिए आश्व० गृ० २/५1१०, हिरण्यकेशिगृ० २।१०।१७, आप० गृ० ८|२१|१, विष्णुपुराण ३।१४।३, आदि), (२) महापितृयज्ञ एवं (३) अष्टकाश्राद्ध । प्रथम दो का वर्णन इस ग्रन्थ के खण्ड २, अध्याय ३० एवं ३१ में हो चुका है । अष्टका श्राद्धों के विषय में अभी तक कुछ नहीं बताया गया है। इनका विशिष्ट महत्त्व हैं, किन्तु इनके सम्पादन के दिनों एवं मासों, अधिष्ठाता देवों, आहुतियों एवं विधि के विषय में लेखकों में मतैक्य नहीं है । गौतम ० ( ८।१९ ) ने अष्टका को सात पाकयज्ञों एवं चालीस संस्कारों में परिगणित किया है । लगता है, 'अष्टका' पूर्णिमा के पश्चात् किसी मास की अष्टमी तिथि का द्योतक है ( श० ब्रा० ६ |४| २|४० ) । श० ब्रा० (६१२२२।२३) में आया है - 'पूर्णिमा के पश्चात् आठवें दिन वह (अग्निचयनकर्ता ) अग्नि-स्थान ( चुल्लि या चुल्ली, चूल्ही या चूल्हे) के लिए सामग्री एकत्र करता है, क्योंकि प्रजापति के लिए (पूर्णिमा के पश्चात् ) अष्टमी पवित्र है और प्रजापति के लिए यह कृत्य पवित्र है ।' जैमिनि० (१1३1२ ) के भाष्य में शबर ने अथर्ववेद ( ३।१०।२) एवं आप० मन्त्र - पाठ (२०२७) में आये हुए मन्त्र को अष्टका का द्योतक माना है । मन्त्र यह है - 'वह (अष्टका) रात्रि हमारे लिए सुमंगल हो, जिसका लोग किसी की ओर आती हुई गौ के समान स्वागत करते हैं और जो वर्ष की पत्नी है।" अथर्ववेद (३:१०१८) में संवत्सर को एकाष्टका का पति कहा गया है । तै० सं० (७।४८।१) में आया है कि 'जो लोग संवत्सर सत्र के लिए दीक्षा लेनेवाले हैं उन्हें एकाष्टका के दिन दीक्षा लेनी चाहिए, जो एकाष्टका कहलाती है वह वर्ष की पत्नी है।' जैमिनि० (६।५।३२-३७ ) ने एकाष्टका को माघ की पूर्णिमा के पश्चात् की अष्टमी कहा है। आप० गृ० ( हरदत्त, गौतम ० ८।१९ ) ने भी यही कहा है, किन्तु इतना जोड़ दिया है कि उस तिथि (अष्टमी ) में चन्द्र ज्येष्ठा नक्षत्र में होता है।" इसका अर्थ यह हुआ कि यदि अष्टमी दो दिनों की हो गयी तो वह दिन जब चन्द्र ज्येष्ठा में है, एकाष्टका कहलायेगा । हिरण्य० गृ० (२।१५।९ ) ने भी एकाष्टका को वर्ष की पत्नी कहा है। " आरव गृ० (२|४|१) के मत से अष्टका के दिन ( अर्थात् कृत्य ) चार थे; हेमन्त एवं शिशिर (अर्थात् मार्गशीर्ष, पौष, माघ एवं फाल्गुन) की दो ऋतुओं के चार मासों के कृष्ण पक्षों की आठवीं तिथियाँ । अधिकांश में सभी गृहसूत्र, यथा- मानवगृ० (२१८), शांखा० गृ० ( ३।१२।१), खादिरगृ० ( ३।२।२७), काठकगृ० (६१।१), ० (३१५१ ) एवं पार० गृ० ( ३३ ) कहते हैं कि केवल तीन ही अष्टका कृत्य होते हैं; मार्गशीर्ष (आय १७. अष्टकालिंगाश्च मन्त्रा वेवे दृश्यन्ते यां जनाः प्रतिनन्वतीत्येवमादयः । शबर (जैमिनि० १।३।२ ) । शबर इसे जैमिनि० (६/५/३५) में इस प्रकार पढ़ा है- 'यां जनाः प्रतिनन्दन्ति रात्रिं धेनुमिवायतीम् । संवत्सरस्य या पत्नी सा नो अस्तु सुमंगली ॥' और उन्होंने जोड़ दिया है— 'अष्टकार्य सुराधसे स्वाहा' । अथर्ववेद ( ३।१०।२) में 'जनाः' के स्थान पर 'देवा' एवं 'धेनुमिवायतीम्' के स्थान पर धेनुमुपायतीम् आया है। १८. पाणिनि ( ७ ३२४५) के एक वार्तिक के अनुसार 'अष्टका' शब्द 'अष्टन्' से बना है। पा० (७।३।४५) का ९वाँ वार्तिक हमें बताता है कि 'अष्टन्' से 'अष्टका' व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है वह कृत्य जिसके अधिष्ठाता देवता पितर लोग हैं, और 'अष्टिका' शब्द का अर्थ कुछ और है, यथा 'अष्टिका खारी' । १९. माघ की पूर्णिमा वर्ष का मुख कहलाती है, अर्थात् प्राचीन काल में उसी से वर्ष का आरम्भ माना जाता था। पूर्णिमा के पश्चात् अष्टका दिन पूर्णिमा के उपरान्त का प्रथम एवं अत्यन्त महत्वपूर्ण पर्व था और यह वर्षारम्भ ( वर्ष आरम्भ होने) से छोटा माना जाता था । सम्भवतः इसी कारण यह वर्ष की पत्नी कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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