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धर्मशास्त्र का इतिहास हायण) की पूर्णिमा के पश्चात् आठवीं तिथि (जिसे आग्रहायणी कहा जाता था); अर्थात् मार्गशीर्ष, पौष (तैष) एवं माघ के कृष्ण पक्षों में। गोमिलगृ० (३।१०।४८) ने लिखा है कि कौत्स के मत से अष्टकाएँ चार हैं और सभी में मांस दिया जाता है, किन्तु गौतम, औद्गाहमानि एवं वार्कखण्डि ने केवल तीन की व्यवस्था दी है। बौ० गृ० (२।११।१) के मत से तैष, माघ एवं फाल्गुन में तीन अष्टकाहोम किये जाते हैं। आश्व० गृ० (२१४२) ने एक विकल्प दिया है कि अष्टका कृत्य केवल एक अष्टमी (तीन या चार नहीं) को भी सम्पादित किये जा सकते हैं। बौ० गृ० (२।११।१-४) ने व्यवस्था दी है कि यह कृत्य माघ मास के कृष्ण पक्ष की तीन तिथियों (७वीं, ८वीं एवं ९वीं) को या केवल एक दिन (माघ कृष्णपक्ष की अष्टमी) को भी संपादित हो सकता है। हिरण्य० गृ० (२।१४१२) ने केवल एक अष्टका कृत्य की, अर्थात् माघ के कृष्ण पक्ष में एकाष्टका की व्यवस्था दी है। भारद्वाज गृ० (२।१५) ने भी एकाष्टका का उल्लेख किया है किन्तु यह जोड़ दिया है कि माघ कृष्ण पक्ष की अष्टमी को, जब कि चन्द्र ज्येष्ठा में रहता है, एकाष्टका कहा जाता है। हिरण्य० गृ० (२।१४ एवं १५) के मत से अष्टका तीन दिनों तक, अर्थात् ८वीं, ९वीं (जिस दिन पितरों के लिए गाय की बलि होती थी) एवं १०वीं (जिसे अन्वष्टका कहा जाता था) तक चलती है। वैखानसस्मार्तसूत्र (४८) का कथन है कि अष्टका का सम्पादन माघ या भाद्रपद (आश्विन) के कृष्ण पक्ष की ७वीं, ८वीं या ९वीं तिथियों में होता है।
___आहुतियों के विषय में भी मत-मतान्तर हैं। काठ० गृ० (६१।३), जैमि० गृ० (२।३) एवं शांखा० गृ० (३।१२।२) ने कहा है कि तीन विभिन्न अष्टकाओं में सिद्ध (पके हुए) शाक, मांस एवं अपूप (पूआ या रोटी) की आहुतियां दी जाती हैं, किन्तु पार गृ० (३॥३) एवं खादिरगृ० (३।३।२९-३०) ने प्रथम अष्टका के लिए अपूपों (पूओं) की (इसी से गोभिलगृ० ३।१०।९ ने इसे अपूपाष्टका कहा है) एवं अन्तिम के लिए सिद्ध शाकों की व्यवस्था दी है। खादिरगृ० (३।४।१) के मत से गाय की बलि होती है। आश्व० गृ० (२।४।७-१०), गोभिलगृ० (४।१।१८-२२), कौशिक (१३८।२) एवं बौ० गृ० (२।११।५११६१) के मत से इसके कई विकल्प भी हैं-गाय या भेड़ या बकरे की बलि देना; सुलम जंगली मांस या मधु-तिल युक्त मांस या गेंडा, हिरन, भैंसा, सूअर, शशक, चित्ती वाले हिरन, रोहित हिरन, कबूतर (या तीतर), सारंग एवं अन्य पक्षियों का मांस या किसी बूढ़े लाल बकरे का मांस; मछलियां ; दूध में पका हुआ चावल (लपसी के समान), या बिना पके हुए अन्न या फल या मूल, या सोना भी दिया जा सकता है, अथवा गायों या सांड़ों के लिए केवल घास खिलायी जा सकती है, या वन में केवल झाड़ियाँ जलायी जा सकती हैं या वेदज्ञ को पानी रखने के लिए घड़े दिये जा सकते हैं, या 'यह मैं अष्टका संपादन करता हूँ' ऐसा कहकर श्राद्धसम्बन्धी मन्त्रों का उच्चारण किया जा सकता है। किन्तु अष्टका के कृत्य को किसी-न-किसी प्रकार अवश्य करना चाहिए।
२०. अथ यदि गां न लभते मेषमजं वालभते। आरण्येन वा मांसेन यथोपपन्नेन । खड्गमगमहिषमेषवराहपृषतशशरोहितशाङ्गतित्तिरिकपोतकपिजलवाोणसानामभय्यं तिलमषुसंसृष्टम्। तथा मत्स्यस्य शतवलः (?) क्षीरोदनेन वा सूपोदनेन वा। यद्वा भवत्याम, मूलफलैः प्रदानमात्रम् । हिरण्येन वा प्रदानमात्रम् । अपि वा गोग्रासमाहरेत् । अपि वानूचानेम्य उदकुम्भानाहरेत् । अपि वाघांखमन्त्रानधीयीत । अपि वारण्येग्निना कक्षमुपोषेदेषा मेऽष्टकेति । न त्वेवानष्टकः स्यात् । बौ० गृ० (२।११।५१-६१); अष्टकायामष्टकाहोमा हुयात् । तस्या हवींषि धानाः करम्भः शकुल्यः पुरोडाश उदौदनः क्षीरोदनस्तिलौदनो यपोपपादिपशः। कौशिकसूत्र (१६८-१-२)। वाध्रीणस के अर्थ के विषय में आगे लिखा जायगा।
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