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________________ पितरों का स्वरूप और वर्ग १२०१ के साथ आहुतियाँ लेने आते हैं (ऋ० १०।१५।१० एवं १०।१६।१२) और अग्नि उनके पास आहुतियाँ ले जाता है (ऋ० १०।१५।१२)। जल जाने के उपरान्त मृतात्मा को अग्नि पितरों के पास ले जाता है (ऋ० १०११६।१-२ एवं ५=अथर्ववेद १८।२।१०; ऋ० १०॥१७३) । पश्चात्कालीन ग्रन्थों में भी, यथा मार्कण्डेय (अध्याय ४५) में ब्रह्मा को आरम्भ में चार प्रकार की श्रेणियाँ उत्पन्न करते हुए व्यक्त किया गया है, यथा-देव, असुर, पितर एवं मानव प्राणी। और देखिए ब्रह्माण्डपुराण (प्रक्रिया, अध्याय ८, उपोद्घात, अध्याय ९।१०)-'इत्येते पितरो देवा देवाश्च पितरः पुनः। अन्योन्यपितरो ोते।' ऐसा माना गया है कि शरीर के दाह के उपरान्त मृतात्मा को वायव्य शरीर प्राप्त होता है और वह मनुष्यों को एकत्र करनेवाले यम एवं पितरों के साथ हो लेता है (ऋ० १०।१४।१ एवं ८, १०।१५।१४ एवं १०।१६।५)। मृतात्मा पितृलोक में चला जाता है और अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह उसे सत् कर्म वाले पितरों एवं विष्णु के पाद-न्यास (विक्रम) की ओर ले जाय (ऋ० १०।१४।९, १०।१५।३ एवं १०।१६।४)। यद्यपि ऋ० (१०।६४१३) में यम को दिवि (स्वर्ग में) निवास करने वाला लिखा गया है, किन्तु निरुक्त (१०।१८) के मत से वह मध्यम लोक में रहनेवाला देव कहा गया है। अथर्ववेद (१८।२।४९) का कथन है-"हम श्रद्धापूर्वक पिता के पिता एवं पितामह की, जो बृहत् मध्यम लोक में रहते हैं और जो पृथिवी एवं स्वर्ग में रहते हैं, पूजा करें।" ऋ० (१॥३५।६) में आया है-'तीन लोक हैं; दो (अर्थात् स्वर्ग एवं पृथिवी) सविता की गोद में हैं, एक (अर्थात् मध्यम लोक) यमलोक है, जहाँ मृतात्मा एकत्र होते हैं।' 'महान् प्रकाशमान (सूर्य) उदित हो गया है, (वह) पितरों का दान है (ऋ० १०।१०७१)।' तैत्तिरीय ब्राह्मण (१।३।१०।५) में ऐसा आया है कि पितर लोग इससे आगे तीसरे लोक में निवास करते हैं। इसका अर्थ यह है कि भूलोक एवं अन्तरिक्ष के उपरान्त पितृलोक आता है। बृहदारण्यकोपनिषद् (१।५।१६) में मनुष्यों, पितरों एवं देवों के तीन लोक पृथक्-पृथक् वर्णित हैं। ऋ० (१०।१३८।१-७) में यम कुछ मिन्न भाषा में उल्लिखित है, वह स्वयं एक देव कहा गया है, न कि प्रथम मनुष्य जिसने मार्ग बनाया (ऋ० १०॥ १४१२), या वह मनुष्यों को एकत्र करने वाला है (१०।१४।१) या पितरों की संगति में रहता है। कुछ स्थलों पर वह निस्सन्देह राजा कहा जाता है और वरुण के साथ ही प्रशंसित है (ऋ० १०।१४।७)। किन्तु ऐसी स्थिति बहुत ही कम वर्णित है। इस विषय में अधिक जानकारी के लिए देखिए इस खण्ड का अध्याय ६।। पितरों की अन्य श्रेणियाँ भी हैं, यथा-पितरः सोमवन्तः, पितरः बर्हिषदः एवं पितरः अग्निष्वात्ताः । अन्तिम दो के नाम ऋ० (१०।१५।४ एवं ११=तै० सं० २।६।१२।२) में आये हैं। शतपथब्राह्मण ने इनकी परिभाषा यों की है-"जिन्होंने एक सोमयज्ञ किया वे पितर सोमवन्तः कहे गये हैं; जिन्होंने पक्व आहुतियाँ (चरु एवं पुरोडाश के समान) दी और एक लोक प्राप्त किया वे पितर बर्हिषदः कहे गये हैं; जिन्होंने इन दोनों में कोई कृत्य नहीं सम्पादित किया और जिन्हें जलाते समय अग्नि ने समाप्त कर दिया, उन्हें अग्निष्वात्ताः कहा गया है। केवल ये ही पितर हैं।" और देखिए तै० ब्रा० (१।६।९।५) एवं काठकसंहिता (९।६।१७)। पश्चात्कालीन लेखकों ने पितरों की श्रेणियों के नामों के अर्थों में परिवर्तन कर दिया है। उदाहरणार्थ, नान्दीपुराण (हेमाद्रि) में आया है-ब्राह्मणों के पितर अग्निवात, क्षत्रियों के बर्हिषद, वैश्यों के काव्य, शूद्रों के सुकालिनः तथा म्लेच्छों एवं अस्पृश्यों के व्याम हैं (मिलाइए मनु ३।१९७)। यहां तक कि मनु (३।१९३-१९८) ने भी पितरों की कई कोटियां दी हैं, और चारों वर्गों के लिए क्रम से सोमपाः, हविर्भुजः, आज्यपाः एवं सुकालिनः पितरों के नाम बतला दिये हैं। आगे चलकर मनु (३।१९९) ने कहा है कि ब्राह्मणों के पितर अनग्निदग्ध, अग्निदग्ध, काव्य, बर्हिषद्, अग्निष्वात्त एवं सौम्य नामों से पुकारे जाते हैं। इन नामों से पता चलता है कि मनु ने पितरों की कोटियों के विषय में कतिपय परम्पराओं को मान्यता दी है। देखिए इन नामों एवं इनकी परिभाषा के लिए मत्स्यपुराण (१४११४, १४१।१५-१८)। शातातपस्मृति (६।५-६) में पितरों की १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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