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धर्मशास्त्र का इतिहास
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कोटियों या विभागों के नाम आये हैं, यथा--पिण्डभाजः (३), लेपभाज: (३), नान्दीमुख (३) एवं अभूमुख ( ३ ) 1 यह पितृ-विभाजन दो दृष्टियों से हुआ है। वायु० ( ७२ । १ एवं ७३ ६ ), ब्रह्माण्ड ० ( उपोद्घात १९५३), पद्म० (५।९।२-३), विष्णुधर्मोत्तर (१११३८।२-३) एवं अन्य पुराणों में पितरों के सात प्रकार आये हैं, जिनमें तीन अमूर्तिमान् हैं और चार मूर्तिमान्; वहाँ उनका और उनकी संतति का विशद वर्णन हुआ है। इन पर हम विचार नहीं कर रहे हैं । स्कन्दपुराण (६।२१६।९-१०) ने पितरों की नौ कोटियाँ दी हैं; अग्निष्वात्ताः, बर्हिषदः, आज्यपाः, सोमपाः, रश्मिपाः, उपहृताः, आयन्तुनः, श्राद्धभुजः एवं नान्दीमुखाः । इस सूची में नये एवं पुराने नाम सम्मिलित हैं। भारतीय लोग भागों, उपविभागों, विभाजनों आदि में बड़ी अभिरुचि प्रदर्शित करते हैं और सम्भवतः यह उसी भावना का एक दिग्दर्शन है। मनु (३|२०१) ने कहा है कि ऋषियों से पितरों की उद्भूति हुई, पितरों से देवों एवं मानवों की तथा देवों से स्थावर एवं जंगम के सम्पूर्ण लोक की उद्भूति हुई। यह द्रष्टव्य है कि यहाँ देवगण पितरों से उद्भूत माने गये हैं । यह केवल पितरों की प्रशस्ति है ( अर्थात् यह एक अर्थवाद है) ।
पितर लोग देवों से भिन्न थे । ऋ० (१०।५३।४) के 'पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्' में प्रयुक्त शब्द 'पंचजना : ' एवं अन्य वचनों के अर्थ के आधार पर ऐतरेय ब्राह्मण ( १३ । ७ या ३ | ३१ ) ने व्याख्या की है कि वे पाँच कोटियाँ हैं अप्सराओं के साथ गन्धर्व, पितृ, देव, सर्प एवं राक्षस । निरुक्त ने इसका कुछ अंशों में अनुसरण किया है (३८) और अपनी ओर से भी व्याख्या की है । अथर्ववेद (१०। ६ । ३२ ) में देव, पितृ एवं मनुष्य उसी क्रम में उल्लिखित हैं। प्राचीन वैदिक उक्तियाँ एवं व्यवहार देवों एवं पितरों में स्पष्ट भिन्नता प्रकट करते हैं । तै० सं० (६| १|१|१) में आया है— 'देवों एवं मनुष्यों ने दिशाओं को बाँट लिया, देवों ने पूर्व लिया, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर ।' सामान्य नियम यह है कि देवों के यज्ञ मध्याह्न के पूर्व आरम्भ किये जाते हैं और पितृयज्ञ अपराह्न में (शांखायनब्राह्मण, ५।६) । शतपथब्राह्मण (२।४।२।२ ) ने वर्णन किया है कि पितर लोग अपने दाहिने कंधे पर ( और बायें बाहु के नीचे ) यज्ञोपवीत धारण करके प्रजापति के यहाँ पहुँचे, तब प्रजापति ने उनसे कहा – “तुम लोगों को भोजन प्रत्येक मास ( के अन्त ) में (अमावास्या को ) मिलेगा, तुम्हारी स्वधा विचार की तेजी होगी एवं चन्द्र तुम्हारा प्रकाश होगा ।" देवों से उसने कहा- “ यज्ञ तुम्हारा भोजन होगा एवं सूर्यं तुम्हारा प्रकाश ।” तै० ब्रा० (१|३|१०|४) ने, लगता है, उन पितरों में जो देवों के स्वभाव एवं स्थिति के हैं एवं उनमें, जो अधिक या कम मानव के समान हैं, अन्तर बताया है।
कौशिकसूत्र (१।९-२३) ने एक स्थल पर देव कृत्यों एवं पितृ कृत्यों की विधि के अन्तर को बड़े सुन्दर ढंग से दिया है। देव कृत्य करनेवाला यज्ञोपवीत को बायें कंधे एवं दाहिने हाथ के नीचे रखता है एवं पितृ कृत्य करनेवाला दायें कंधे एवं बाय हाथ के नीचे रखता है: देव कृत्य पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुख करके आरम्भ किया जाता है। किन्तु पितृ-यज्ञ दक्षिणाभिमुख होकर आरम्भ किया जाता है; देव कृत्य का उत्तर-पूर्व ( या उत्तर या पूर्व ) में अन्त किया जाता है और पितृ कृत्य दक्षिण-पश्चिम में समाप्त किया जाता है; पितरों के लिए एक कृत्य एक ही बार किया जाता है, किन्तु देवों के लिए कम-से-कम तीन बार या शास्त्रानुकूल कई बार किया जा सकता है; प्रदक्षिणा करने में दक्षिण भाग देवों की ओर किया जाता है और बायाँ भाग पितरों के विषय में किया जाता है; देवों को हवि या आहुतियाँ देते समय 'स्वाहा' एवं ' वषट्' शब्द उच्चारित होते हैं, किन्तु पितरों के लिए इस विषय में 'स्वधा' या 'नमस्कार' शब्द उच्चारित होते हैं; पितरों के लिए दर्म जड़ से उखाड़कर प्रयुक्त होते हैं किन्तु देवों के लिए जड़ के ऊपर काटकर । बौघा० श्री० (२/२) ने एक स्थल पर इनमें से कुछ का वर्णन किया है।' स्वयं ऋ० (१०११४ | ३ 'स्वाहयान्ये स्वधयान्ये मदन्ति' )
९. प्रागपवर्गाष्णुदगपवर्गाणि वा प्राङ्मुखः प्रदक्षिणं यज्ञोपवीती देवानि कर्माणि करोति । दक्षिणामुखः प्रसव्यं प्राचीनावीती पित्र्याणि । बौ० श्रौ० (२२) ।
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