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मृत पितरों को श्राखोय वस्तुओं को प्राप्ति
११९९ प्रतीत होता है कि (श्राद्ध द्वारा) पूर्वज-पूजा प्राचीन प्रथा है और पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन हैं और हिन्दू धर्म ने, जो व्यापक है (अर्थात् अपने में सभी को समेट लेता है) पुनर्जन्म आदि के सिद्धान्त ग्रहण करते हुए भी श्राद्धों की परम्परा को ज्यों-का-त्यों रख लिया है। एक प्रकार से श्राद्ध-संस्था अति उत्तम है। इससे व्यक्ति अपने उन पूर्वजों का स्मरण कर लेता है जो जीवितावस्था में अपने प्रिय थे। 'आर्यसमाज' श्राद्ध-प्रथा का विरोध करता है और ऋग्वेद में उल्लिखित पितरों को वानप्रस्थाश्रम में रहने वाले जीवित लोगों के अर्थ में लेता है। यह ज्ञातव्य है कि वैदिक उक्तियां दोनों सिद्धान्तों का समर्थन करती हैं। शतपथब्राह्मण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यज्ञकर्ता के पिता को दिया गया भोजन इन शब्दों में कहा जाता है—'यह तुम्हारे लिए है।' विष्णु० (७५।४) में आया है-'वह, जिसका पिता मृत हो गया हो, अपने पिता के लिए एक पिण्ड रख सकता है।' मनु (३।२८४) ने कहा है कि पिता वसु, पितामह रुद्र एवं प्रपितामह आदित्य कहे गये हैं। याज्ञ० (११२६९) ने व्यवस्था दी है कि वसु, रुद्र एवं आदित्य पित हैं और श्राद्ध के अधिष्ठाता देवता हैं। इस अन्तिम कथन का उद्देश्य है कि पितरों का ध्यान वसु, रुद्र आदि के रूप में करना चाहिए।
. जैसा कि अभी हम वैदिक उक्तियों के विषय में देखेंगे, पितरों की कल्पित, कल्याणकारी एवं हानिप्रद शक्ति पर ही आदिम अवस्था के लोगों में पूर्वज-पूजा की प्रथा महत्ता को प्राप्त हुई। ऐसा समझा जाता था कि पितर लोग जीवित लोगों को लाभ एवं हानि दोनों दे सकते हैं। आरम्भिक काल में पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए जो आहुतियाँ दी जाती थी अथवा जो उत्सव किये जाते थे वे कालान्तर में श्रद्धा एवं स्मरण के चिह्नों के रूप में प्रचलित हो गये हैं। प्राक्वैदिक साहित्य में पितरों के विषय में कतिपय विश्वास प्रकट किये गये हैं। बौ० ध० सू० (२।८।१४) ने एक ब्राह्मण-ग्रन्थ से निष्कर्ष निकाला है कि पितर लोग पक्षियों के रूप में विचरण करते हैं। यही बात ओशनसस्मृति एवं देवल (कल्पतरु) ने भी कही है। वायु० (७५।१३-१५= उत्तरार्ध १३॥१३-१५) में ऐसा कहा गया है कि श्राद्ध के समय पितर लोग (आमन्त्रित) ब्राह्मणों में वायु रूप से प्रविष्ट हो जाते हैं और जब योग्य ब्राह्मण वस्त्रों, अन्नों, प्रदानों, भक्ष्यों, पेयों, गायों, अश्वों, ग्रामों आदि से सम्पूजित हो जाते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं। मनु (३११९) एवं ओशनस-स्मृति इस स्थापना का अनुमोदन करते हैं कि पितर लोग आमन्त्रित ब्राह्मणों में प्रवेश करते हैं। मत्स्यपुराण (१८५५-७) ने व्यवस्था दी है कि मृत्यु के उपरान्त पितर को १२ दिनों तक पिण्ड देने चाहिए, क्योंकि वे उसकी यात्रा में भोजन का कार्य करते हैं और उसे सन्तोष देते हैं। अतः आत्मा मृत्यु के उपरान्त १२ दिनों तक अपने आवास को नहीं त्यागती; मृतात्मा अपने घर, अपने पुत्रों, अपनी पत्नी के चतुर्दिक १२ दिनों तक चक्कर काटता रहता है। अतः १० दिनों तक दूध (और जल) ऊपर टांग देना चाहिए जिससे सभी यातनाएँ (मृत के कष्ट) दूर हो सकें और यात्रा की थकान मिट सके (मृतात्मा को निश्चित आवास स्वर्ग या यम के लोक में जाना पड़ता है)। विष्णुधर्मसूत्र (२०१३४-३६) में आया है-"मृतात्मा श्राद्ध में 'स्वधा' के साथ प्रदत्त भोजन का पितृलोक में रसास्वादन करता है। चाहे मृतात्मा (स्वर्ग
५. वयसां पिण्डं दद्यात् । वयसां हि पितरः प्रतिमया चरन्तीति विज्ञायते । बौ० १० सू० (२५८३१४); न च पश्यत काकादीन् पक्षिणस्तु न वारयेत् । सबूपा पितरस्तत्र समायान्ति बुभुत्सवः॥ औशनस; न चात्र श्येनकाकादीन् पक्षिणः प्रतिषेधयेत् । तद्रूपाः पितरस्तत्र समायान्तीति वैदिकम् ॥ देवल (कल्पतर, श्राद्ध, पृ० १७)।
६. पाडकाले तु सततं वायुभूताः पितामहाः। आविशन्ति द्विजान् दृष्ट्वा तस्मादेतद् ब्रवीमि ते॥ वस्त्ररश्नः प्रदानस्तंभक्ष्यपेयस्तथैव च । गोभिरश्वस्तथा ग्रामः पूजयित्वा द्विजोत्तमान् ॥ भवन्ति पितरः प्रीताः पूजितेषु द्विजातिषु । तस्मावन्नेन विधिवत् पूजयेद् द्विजसत्तमान् ॥ वायु० (७५।१३-१५); ब्राह्मणांस्ते समायान्ति पितरो ह्यन्तरिक्षगाः । वायुभूताश्च तिष्ठन्ति भुक्त्वा यान्ति परां गतिम् ॥ औशनसस्मृति ।
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