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________________ कच्चे अन्न और सिद्ध भोजन की शुद्धि; वस्त्रों, कठोर वस्तुओं की शुद्धि-व्यवस्था ११९३ एवं जल छिड़क देने से पवित्र हो जाता है। पराशर (६।७१-७५ ) ने इस विषय में यों कहा है- 'ब्राह्मण द्वारा वह भोजन, जिसे कुत्तों ने चाट लिया हो, कौए ने चोंच से छू दिया हो, या जिसे गाय या गधे ने सूंघ लिया हो, त्यक्त हो जाना चाहिए, किन्तु यदि वह एक द्रोण या आढक की मात्रा में हो तो उसकी शुद्धि कर लेनी चाहिए। वह भाग, जिस पर कुत्ते की लार टपक पड़ी या जिसे कौए ने छू लिया हो, त्याग देना चाहिए और शेषांश पर सुवर्ण-जल छिड़क देना चाहिए, उस पर अग्नि का ताप दे देना चाहिए, ब्राह्मणों को उस पर वैदिक मन्त्र (पवमान सूक्त आदि) का जोर से पाठ करना चाहिए, इसके उपरान्त वह भोजन खाने योग्य हो जाता है ।" शुद्धिप्रकाश ( पृ० १२८ - १२९ ) ने व्याख्या की है कि एक द्रोण से अधिक भोजन धनिक लोगों द्वारा फेंक नहीं दिया जाना चाहिए और यही बात दरिद्रों के लिए एक आढक भोजन के विषय में भी लागू होती है। *" मनु (५।११५) का कथन है कि द्रव (तरल पदार्थ, यथा-तेल, घी आदि ) की शुद्धि ( जब वह थोड़ी मात्रा में हो) उसमें दो कुशों को डाल देने से ( या दूसरे पात्र में छान देने से ) हो जाती है, किन्तु यदि मात्रा अधिक हो तो जल-मार्जन पर्याप्त है।" शंख ( १६।११-१२ ) का कथन है कि सभी प्रकार के निर्यासों (वृक्षों से जो स्राव या रस आदि निकलते हैं), गुड़, नमक, कुसुम्भ, कुंकुम, ऊन एवं सूत के विषय में शुद्धि प्रोक्षण से हो जाती है । " याज्ञ० कुछ बातें वस्त्र परिधानों एवं उन वस्तुओं के विषय में, जिनसे ये निर्मित होती हैं, लिखना आवश्यक है । लघुआश्वलायन (११२८-३०) ने व्यवस्था दी है कि पहनने के लिए श्वेत वस्त्र (धोती) उपयुक्त है, उत्तरीय आदि श्वेत वस्त्र के होने चाहिए, किसी के स्पर्श से ये अशुद्ध नहीं होते हैं। दोनों से युक्त होकर लोग मल-मूत्र का त्याग कर सकते हैं। सर ( टसर ) धोकर स्वच्छ किया जाता है, किन्तु रेशमी वस्त्र सदा शुद्ध रहते हैं। मनु ( ५।१२०-१२१ ), (१।१८६ - १८७ ) एवं विष्णु ( २३।१९-२२ ) ने भी यही कहा है, किन्तु थोड़े अन्तर के साथ, यथा--- रेशमी एवं ऊनी वस्त्र लवणयुक्त (क्षार) जल से स्वच्छ करना चाहिए (गोमूत्र एवं जल से भी), नेपाली कम्बल रीठे से, छाल से बने वस्त्र बेल के फल से एवं क्षौम पट या सन से बना वस्त्र श्वेत सरसों के लेप से स्वच्छ करना चाहिए। विष्णु० ( २३।६) का कथन है कि जब वस्त्र अत्यन्त अशुद्ध हो गया हो और जब वह भाग जो शुद्ध करने से रंगहीन हो गया हो तो उसे फाड़कर बाहर कर देना चाहिए। शंख (विश्वरूप, याज्ञ० १११८२ ) ने व्यवस्था दी है कि परिधान को गर्म वाष्प एवं जल से शुद्ध करना चाहिए और अपवित्र अंश को फाड़ देना चाहिए। पराशर ( ७/२८) ने कहा है कि बाँस, वृक्ष की छाल, सन एवं रूई के परिधान, ऊन एवं भूर्जपत्र के बने वस्त्र केवल प्रोक्षण (पानी से धो देने) से स्वच्छ हो जाते हैं । ७४. काकश्वानावलीढं तु गवाघ्रातं. खरेण वा । स्वल्पमन्नं त्यजेद्विप्रः शुद्धिद्रोंणाढके भवेत् ॥ अन्नस्योद्धृत्य तन्मात्रं यच्च लालाहतं भवेत् । सुवर्णोदकमभ्युक्ष्य हुताशेनैव तापयेत् ।। हुताशनेन संस्पृष्टं सुवर्णसलिलेन च । विप्राणां ब्रह्मघोषेण भोज्यं भवति तत्क्षणात् ॥ पराशर ( ६।७१-७४) एवं शु० प्र० (५० १२८ - १२९ ) । ७५. द्रोण एवं आढक की विशिष्ट जानकारी के लिए देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय ४ । अधिकांश लेखकों ने एक द्रोण को चार आढक के समान माना है। ७६. द्रवाणां चैव सर्वेषां शुद्धिरुत्पवनं स्मृतम् । प्रोक्षणं संहतानां च दारवाणां च तक्षणम् ॥ मनु ( ५।११५) । कुल्लूक ने व्याख्या की है- “ प्रादेशप्रमाणकुशपत्रद्वयाभ्यामुत्पवनेन शुद्धिः"; शुद्धिप्रकाश (पू० १३३) ने यों लिखा है -- “ उत्पवनं वस्त्रान्तारेतपात्रप्रक्षेपेण कीटाद्यपनयनमित्युक्तम् ।" ७७. नियोसानां गुडानां च लवणानां तथैव च । कुसुम्भकुंकुमानां च ऊर्णाकार्पासयोस्तथा । प्रोक्षणात्कथिता शुद्धिरित्याह भगवान्यमः ॥ शंख (१६।११-१२) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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