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________________ १९९२ पर्नशास्त्र का इतिहास नियम दिये हैं। उदाहरणार्थ, मनु (५।११६-११७) का कथन है-यज्ञिय पात्रों को सर्वप्रथम दाहिने हाथ (या दर्भ या छन्ने) से रगड़ना चाहिए और तब चमस एवं प्याले यज्ञ में व्यवहृत होने के पश्चात् जल से धोये जाते हैं; घरस्थाली (जिसमें आहुति के लिए भात की हवि बनायी जाती है), खुव (काठ का करछुल जिससे यज्ञिय अग्नि में घृत डाला जाता है) एवं त्रुचि (अर्धवृत्त-मुखी काठ का करछुल) गर्म जल से शुद्ध किये जाते हैं; स्फय (काठ की तलवार), सूर्य (सूप), गाड़ी (जिसके द्वारा सोम के पौधे लाये जाते हैं), काठ का ऊखल (ओखली) एवं मुशल जल से स्वच्छ किये जाते हैं (या याज्ञ. ११७४ के अनुसार जल-मार्जन से शुद्ध किये जाते हैं। अशद अन्न एवं सिद्ध भोजन की शद्धि के लिए भी कतिपय नियम हैं। इन नियमों में सविधा. साधारण जानकारी एवं हानि की बातों पर भी ध्यान दिया गया है। विष्णु० (२३।२५) का कथन है कि जब चावल (या अन्य अन्न) की ढेरी अशद्ध हो जाय तो केवल अशद्ध भाग को हटा देना चाहिए और शेष को घोकर चर्ण में परिणत कर देना चाहिए; एक द्रोण (प्रायः ३० सेर) सिद्ध अन्न अशुद्ध हो जाने पर केवल उस भाग को हटा देना उपयुक्त है जो वास्तव में अशद्ध हुआ है, किन्तु शेष पर सोना-मिश्रित जल छिड़कना चाहिए (उस जल पर गायत्रीमन्त्र का पाठ होना चाहिए),उसे बकरी को दिखाना चाहिए और अग्नि के पास रखना चाहिए। और देखिए बौ० घ० सू० (११६।४४-४८)। यदि धान अशुद्ध हो गये हों तो उन्हें धोकर सुखा देना चाहिए। यदि वे अधिक हों तो केवल जल-मार्जन पर्याप्त है; भूसी हटाया हुआ चावल (अशुद्ध होने पर)त्याग देना चाहिए। यही नियम पके हुए इविष्यों के लिए भी प्रयुक्त होता है। यदि अधिक सिद्ध-भोजन अशुद्ध हो जाय तो वह भाग जो कौओं या कुत्तों से अशुद्ध हो गया हो हटा देना चाहिए और शेषांश पर 'पवमानः सुवर्जनः' (तैत्तिरीयब्राह्मण, १४१८) के अनुवाक के साथ जल-छिड़काव कर लेना चाहिए। गौतम० (१७) ९-१०) का कथन है कि केश एवं कीटों (चींटी आदि) के साथ पके भोजन, रजस्वला नारी से छू गये या कौए से चोंच मारे गये या पैर से लग गये भोजन को नहीं खाना चाहिए। किन्तु जब भोजन बन चुका हो तब वह कौए द्वारा छुआ गया हो या उसमें केश, कीट एवं मक्खियाँ पड़ गयी हों तो याज्ञ० (१३१८९) एवं पराशर (६.६४-६५) के मत से उस पर भस्म-मिश्रित जल एवं धूलि (जलयुक्त) छोड़ देनी चाहिए। आ० घ० सू० (१।५।१६।२४-२९) ने व्यवस्था दी है कि जिस भोजन में केश (पहले से ही पड़ा हुआ) या अन्य कोई वस्तु (नख आदि) हो तो वह अशुद्ध कहा जाता है और उसे नहीं खाना चाहिए, या वह भोजन जो अपवित्र पदार्थ से छू दिया गया हो या जिसमें अपवित्र वस्तुभोजी कीट पड़े हुए हों या जो किसी के पैर से धक्का खा गया हो या जिसमें चूहे की लेंडी या पूंछ (या कोई शरीरांग) पड़ा.पाया जाय, उसे नहीं खाना चाहिए। मनु (५।११८) ने एक सामान्य नियम दिया है जो अन्नों एवं वस्त्रों के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं के साथ भी व्यवहृत होता है, यथा यदि वस्तु-समूह की राशि हो तो प्रोक्षण (जल छिड़कना) पर्याप्त है, यदि मात्रा कम हो तो जल से धो लेना आवश्यक है। मनु (५।१२५=विष्णु० २३॥३८) ने व्यवस्था दी है कि सिद्ध भोजन (थोड़ी मात्रा में), जिसका एक अंश (मनुष्यों द्वारा खाये जानेवाले) पक्षियों द्वारा चोंच मारे जाने पर या कोए द्वारा छू लिये जाने पर, मनुष्य के पैर द्वारा धक्का खा जाने पर, उस पर किसी द्वारा छींक दिये जाने पर, केश या कीटों के पड़ जाने पर धूलि ७२. असिवस्यानस्य यावन्मात्रमुपहतं तन्मात्रं परित्यज्य शेषस्य कन्डनप्रक्षालने कुर्यात् । द्रोणाधिकं सिद्धमन्त्रमुपहतं न दुष्यति। तस्योपहतमात्रमपास्य गायत्र्याभिमन्त्रितं सुवर्णाम्भः प्रक्षिपेद् बस्तस्य च प्रदर्शयेदग्नश्च । विष्णु० (२३।११)। शुद्धिको० (पृ० ३१७) ने 'सूर्यस्य दर्शयेदानेश्च' पढ़ा है। ७३. नित्यमभोज्यम् । केशकीटावपन्नम् । रजस्वलाकृष्णशकुनिपदोपहतम् । गौ० (१७८-१०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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